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________________ मूलाराधना २०२ अनादिकालमिध्यात्वभावितो न प्रवर्तते ॥ सम्यक्त्वेऽयं मनस्तेन प्रयत्नोन विधीयते ॥ ७५७ ।। विजयोदय-जीवो भणादिकालं पयप्तमिच्छत्तनाविशे संतो जीवो ऽनादिकालप्रवृत मिध्यात्वभावितः सन् । ण रमिज्ज र नैव रमेस । सम्मले सम्पत्थ अत्र सम्यक् पयक्षं प्रप्रत्नः । कादव्यं खु कर्तव्य एव । अनंकाले परिभाषितं मिथ्यात्वं दुरुयजं तदेव दुःखयाज्यं । यथोचिरपरिचित छिद्रं निवार्यमाणोऽपि वलात्प्रविशति इति कर्तव्यं सम्ययत्ये दाढये ॥ मूलारा -- एत्थ अत्र सम्यक् । कादव्वं कर्तव्य एव प्रयत्नः । निवार्यमाणोऽपि जीवचिरभावितं मयालमनुयात्युरगएव छिद्रमिति ॥ अर्थ- अनादिकालसे जीव में मिथ्यात्व चला आया है इससे यह जीव सम्यक्त्वमें रममाण होता नहीं. इस मिथ्याकाही स्वाद इसको अनादिकालने आजतक आ रहा था इस लिये यह जीव सम्यक्त्वमें नहीं रमेगा, इस वा सम्यक् प्रयत्न करनेके लिये जीवको पारवार मध्यावकात्याग करनेका आचार्य उपदेश करते हैं. अनंतकालने मिध्यात्वका अभ्यास होनेसे उसका त्याग करना बडाही कठिन है. जैसे अपने चिरपरिचेत बिलमें निवारण करने पर भी प्रवेश करता है वैसे इस जीव को भी बारबार मिथ्यात्व का त्याग करनेके लिये और सम्यक्त्व दृढता लानेके लिये वारंवार मिथ्यात्वत्यागका उपदेश करना अयोग्य नहीं है. अग्गिचिस किण्हसप्पादियाणि दोसं ण तं करेज्जण्डू 11 जं कुणदि महादोसं तिब्वं जीवस्स मिच्छतं ॥ ७२९ ॥ विजयोदया - अग्गविससिप्पादिणि अनिर्बियं कृष्णन उत्यादीनि । दोश ण तं करेाड दोपं तं न कुर्युः । जं कुणदि यं करोति । महाबोस महांते शेषं । जीवस्त जीवस्य निती कि ? मिच्छसिध्यान्यं अश्रद्धानं ॥ अग्न्यादिभ्यो मिथ्यास्त्रस्य विशिष्टां दुष्टतामाचष्टे -- मूलारा करेज्जण्डू कुर्युः । तदेव स्पष्यति अर्थ - आग, विष और काला सर्प वगैरह पदार्थोंसे भी उतनी हानि होती नहीं. जितनी बड़ी हानि ती मिथ्यात्व जीवांकी होती है. अर्थात् तस्य में अश्रद्धान करनेसे संसार में भ्रमण करना पडता है. भाश्वासः ९०१
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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