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________________ मूलाराधना आश्वासः ३१० अर्थ- अन्य देशोंमें रहनेवाले साधुओंका दर्शन होनेसे अनियतविहारी साधु भी उनके समानही हो जाता है, बार बार पांच प्रकारके संसारका निरूपण श्रवण करनेसे मम व्यथित होकर जिनको संसारसे अत्यंत भय उत्पन्न हुवा है ऐसे साधुओंका दर्शन होनेसे अभियतविदारी साध भी संसारसे अधिक भययुक्त होता है. धर्मका आचरण करनेसे नवीन कमाको निरोध अर्थात् संवर होता है, पूर्ववद्ध कर्म निजीणे होकर आत्मासे अलग होते हैं. यह जिनधर्म अर्थात् मुनिधर्म स्वगादिसुख और मोक्षसुख जीवांका देता है ऐसा धर्मका फल और उसका माहात्म्य सुनकर उसमें जिनका मन हमेशा अधिक रुचि रखता है ऐसे मुनिवर्यको प्रियधर्मतर कहते हैं. उनको देखनेसे विहारी यति भी धर्म में प्रगाढ रुचि रखता है, जो थोडेसे अशुभयोगोंको अपने आत्मामें उत्पन्न होने नहीं देते ऐसे मुनिओंको अवद्य भीस्तर कहते हैं. ऐसे साधुओंको देखकर अनियत विहार करनेवाला साधु धर्म पर अतिशय प्रेम करना है और उसमें अधिक स्थिर होता है, जैसे 'अभिरूपाय कन्या देवा'रूपवानको कन्या देनी चाहिये, यहां सब मनुष्य रूपयुक्तही होते हैं. कोईमी मनुष्य रूपरहित नहीं होता है. अतः 'अभिरूपाय कन्या देगा ' इस वाक्यका ' अधिक सुंदर पुरुषकों कन्या देनी चाहिये ऐसा अभिप्राय है, बस 'प्रियस्थिरधर्मा, इसका प्रियस्थिरधर्मतरः 'ऐसा अभिप्राय समझना चाहिये, अर्थात् अनियत विहार करनेवाला साधु अधिक प्रिय और अधिक स्थिर धर्मको धारण करनेवाला होता है. - - - भावना व्याचो परीषहसहनमिद मायनेत्युच्यते चरिया छुहा य तपहा सीदं उपहं च भाविदं होदि । सेज्जा वि अपडिबद्धा विहरणेणाधिआसिया होदि ।। १७ ॥ शीतातपक्षुधातृष्णानिषधाद्याः परीषहाः॥ यतिनाटाध्यमानेन समस्ताः सन्ति भाविताः।। १५०॥ चिजयोदया-चरिया चर्याजन्यं दुःयमिह बर्येति गृहीतं । उपानहान्येग वा अकृतपादर नस्य, गच्छतो निशिसशर्फरापापाणकंटकादिभिस्तुद्यमानबरणस्य, उरणरजःसंतसादस्य, वा यहाख तस्यानुभवनमर्सलेशेन चर्या भावना । छुहा य अपरिचिते देशे संयतैः पूर्वमनभ्यासिते अल्पधान्यसंरहे प्रयोग्याथा अलाभात् भिक्षायाः समुपजाता भुवेदना ३४०
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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