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मूलारावना
आश्वास:
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अर्थ-अन्य देशों में रहनेवाले साधुतानोलेरो भनिय बिहारी मधु भी उनके समानहीं हो जाता है. बार पार पांच प्रकारके संसारका निरूपण श्रवण करनेसे मन घ्यथित होकर जिनको संसारसे अत्यंत भय उत्पन्न हुवा है ऐसे साधुओंका दर्शन होनेसे अनियतविहारी साधु भी संसारसे अधिक भययुक्त होता है. धर्मका आचरण करनेसे नवीन काँका निरोध अर्थात् संवर होता है, पूर्वबद्ध कर्म निर्जीर्ण होकर आत्मासे अलग होते है. यह जिनधर्म अर्थात् मुनिधर्म स्वर्गादिसुख और मोक्षसुख जीवोंको देता है ऐसा धर्मका फल
और उसका माहात्म्य सुनकर उसमें जिनका मन हमेशा अधिक रुचि रखता है ऐसे मुनिवर्यको प्रियधर्मतर कहते हैं. उनको देखनेसे विहारी यति भी धर्म में प्रगाढ रुचि रखता है. जो थोडेस अशुभयोगोंको अपन आत्मामें उत्पन्न होने नहीं देते ऐसे मुनिओंको अयद्य भीरुतर कहते हैं. ऐसे साधुओंको देखकर अनियत विहार करनेवाला साधु धर्म पर अतिशय प्रेम करता है और उसमें अधिक स्थिर होता है. जैसे 'अभिरूपाय कन्या देया 'रूपवानको कन्या देनी चाहिये, यहां सर्व मनुष्य रूपयुक्तही होत है. कोहभी मनुष्य रूपरहित नहीं होता है. अतः 'अभिरूपाय कन्या देया ' इस वाक्यका अधिक सुंदर पुरुपकों कन्या दंनी चाहिय' ऐसा अभिप्राय है. बगे नियस्थिरधर्मा, इसका
प्रियस्थिरधर्मशरः ऐसा अभिप्राय समझना चाहिये. अथांत अनियत विहार करनेवाला साधु अधिक प्रिय और अधिक स्थिर धर्मको धारण करनेवाला होता है.
भावना व्याचऐ--परीषदसहनमिह भावनेत्युच्यते--
चरिया छुहा य तण्डा सीदं उण्हं च भाविदं होदि । सज्जा वि अपडिबहा विहरणेणाधिआसिया होदि ॥ १४७ ।। शीतातपक्षुधासृष्णानिषद्यायाः परीषहाः।।
यतिनाटाव्यमानेन समस्ताः सन्ति भाविताः ।। १५०।। विजयोफ्या-चरिया चर्याजन्यं दुःसामिह चयति गृहीतं । उपानहान्यन वा अस्तपादरक्षस्य, गच्छतो निशितशर्करापाराणकंटकाविभिस्तुचमानचरणस्य, उपरजःसंतप्तपादस्य, चा यहःखं तस्यानुभव नमसंशन चर्यामाचना । छुहा 4 अपरिचिते देशे संयतैः पूर्वमनध्यासिते अल्पयाम्य संग्रहे प्रयोन्याया लामात् भिक्षायाः समुपजाता झुदेवना
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