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मूलाराधना
आमास
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मा श्री सत्कृह मात्र संखक रसं वृत्तं स्मर स्मार्य मा ॥
वय॑न्मेकछ जुषस्व मेष्टविषयान् द्विपंचधा ब्रह्मणे ।। दशविधमप्यना मुमुक्षुणात्यतापकारत्वात्याज्यमित्युपदेष्टुं तहोपानाह
अर्थ-सत्कार-स्त्रियोंका सत्कार करना सम्माणो-उनके देहपर प्रेम रखकर वस्त्र, माला वगैरह पदार्थोंसे उनका सत्कार करना. उनको अलंकारादिक पदार्थ अर्पण करना.
अतीतसरण-भूतकालमें किये हुए रतिक्रीडाओंका स्मरण करना. अनागामिलाप-भविष्यकालमें उनके साथ ऐसी २ रतिक्रीया करूगा ऐसी अभिलाषा मनमें करना,
इष्टविषयसेषा --मनोवांछित सीध, उद्यान वगैरहका उपयोग करना. जिसके रामभाव मबल हैं ऐसे पुरुष के परद्रव्योंके सेवन से रागद्वेष प्रबल होते हैं. ज्ञान, श्रद्धान, और वीतरागता इत्यादिकोंमें प्रवृत्ति करना अमचर्य है. इससे विरुद्ध अबझके दशप्रकार कहे है.
एवं विसग्गिभूदं अब्बभं दसविहंपि णादव्वं ।। आवाडे मधुरम्भिब होदि विवागे य कडुयदरं ॥ ८८१ ।।
आपासे मधुरं रम्यमबह्म दशधाप्यदः ॥
विपाके का हेयं किंपाकमिष सर्वदा ।। ८१२॥ विजयोत्या एवं विसग्गिभूर्व विषाग्निना सशं श्तवब्रह्म यशप्रकारं हातभ्य । भापाते मधुरमिष भवति विपाके तु कटुकतमं ।
मूलाराधना--विसम्पिभूर्द त्रिपबदभियत संतापमोहीमरणाविकरणात् । आषादे आपाते सेवोपक्रमे । विवागे बिपाके विरमणक्षणे । कडुगदरं अत्यंतदुस्त्यजत्वादतिकष्टम् ॥
अर्थ—यह दश प्रकारका अब्रह्म विए और अनिके समान है एसा समझना चाहिए. यह अब्रह्म प्रारम्भ में बहा मिष्ट मालुम होता है परन्तु अन्त में अत्यंत कडवा है.