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आश्वात
मूलाराधना
अर्थ-हे क्षपक तू ईयादिसमितिओं में एकाग्र चित्त होकर अर्थात संपूर्ण पापक्रियाओंका त्याग करके आमरण मन, वचन, और काययोगसे तथा कृत, कारित और अनुमति ऐसे नउ प्रकारसे छह प्रकारके जीवसमुदायोंका वध करना छोड दे. ऐसी प्रवृत्ति करनेसे तेरा अहिंसा महाव्रत पूर्ण निर्दोप पाला जायगा. सर्व जीवोंकी हिंसा प्राश हुए इस मनुष्यपर्याय में सब प्रकार त्यागी जाती है इस लिइसको आमा नहावत कहते हैं. 'छज्जीव णिकाय' इस पदसे जगत में जीवोंके समुदाय अर्थात प्रकार कितने हैं यह दिखाया है. ब " मणवयणकायजोगेहि, कदकारिदाणुमोदेहि "इन पदोंसे हिंसाके प्रकारका कथन किया है, अर्थात हिंसा नऊ प्रकारस होती है. 'जावज्जी' इस पदसे संपूर्ण मनुष्यायुष्यका ग्रहण किया है,
जह ते ण पियं दुक्खं तहेव तेसिपि जाण जीवाणं ॥ एवं णच्चा अप्पोवमिवो जीवस होदि सदा ॥ ७७७॥ यथा न ते प्रिय दुःग्य सर्वेषां देहिनां तथा ।।
इति ज्ञात्वा सदा रक्ष नान्स्वस्वमिव यत्नतः॥ ८०८॥ विजयोदया-जह ते ण पियं दुःखं यथा तवन प्रियं दुक्खे । तधेब तेसि पिजीवाणं दुःख न पियत्ति तथैष तेषामपि जीवानां न दु:ख मिन मिति । जाण जानीहि । पच्चा पपं सात्या । थप्पोषमिवो आत्मोपमानः । सदा होहि जीवेषु। परदुःस्थानियो भयेति यावत् ॥
अर्थ-हे क्षपक ! जैस तुगको दुख प्रिय नहीं है वैसे अन्य जीवों को भी दुःख प्रिय नहीं हैं. ऐसा समझ कर सर्व जीवों में तू आत्मोपम हो अर्थात परदुःख देनेसे निवृत्त हो.
तण्डाहादिपग्दिात्रिदो नि जीवाण घादण किच्चा ॥ पडियारं काढुंजे भा तं चिंतसु लभसु सदि ॥ ७७८ ।। क्षुधा तृष्णाभिभूतोऽपि विधाय प्राणिपीडनम् ।। मा कार्षीरपकारं त्वं वपुर्वचनमानसैः ।। ८०९ ।।