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मूलाराधना
प्रस्तावना
प्राप्ति होती है. इस रलत्रय की आराधना करनेसे अभ्युदय और मोक्षरूप फलकी प्राप्ति होती है. इन सब बातोंका इस ग्रंथमें वर्णन किया है.
रत्नत्रय आराध्य है, वसा तपभी आराध्य माना है परंतु उसका चारित्र में अन्तर्भाव होनेसे रत्नत्रय ही आराध्य है ऐसा सिद्ध होता है. जिस ने सुखिया स्वभावको छोड दिया है वही चारित्रको धारण करता है अर्थात् अनशनादि बाहा तपश्चरण करने की प्रवृत्ति करनेवाला साधु चारित्रमें उत्साहयुक्त होता है जिससे उसके पापोंका नाश होता है. चारित्रके परिणामोंको अर्थान् विनयादि तपोको चरित्रकी वृद्धि करनेवाले होनेसे आचार्य चारित्रमें ही अन्तर्भूत करते हैं. यदि तपको अलग गिनाया जाय तो आराध्य पदार्थ चार होते है.
इन चार आराध्य पदार्थों की आराधना उद्योतन, उद्यरन, निर्वहण, साधन और निस्तरण इन उपायोंसे होती है. सम्यग्दर्शनाविकों को अतिचारोंसे अलिप्त रखना अर्थात उनमें दोष उत्पन्न न होने देना उद्योवन है. आत्मामें धार बार सम्यग्दर्शनादिकोंकी परिणति होते आना उधवन कहते हैं. एरीपहादिक प्राप्त होनेपर भी स्थिरचित्त होकर सम्यग्दर्शनादिकोंसे घ्युत्त न होना इसको निर्वहण कहते हैं. अन्य कार्यों में चित्त लानेसे यदि सम्यग्दर्शनादिक तिरोहित होनेपर पुनः उपायोंसे सनको पूर्ण करना इसको साधन कहते है..आमरण सम्यग्दर्शनाविकों को निर्दोष धारण कर अन्यजन्म में उनको पोहोंचानां निस्तरण है. सम्यग्दर्शन, सम्यमान, सम्यचारित्र और वप इन चारोंकी उन्नति होने के लिये उपयुक्त पांचोकी
आवश्यकता है ही. प्रत्येक में उद्योतादिक पांच उपाय मान लेनेसे २० वीस भेद होते हैं, अत: यह अराधना उद्योतनाविक पीस भुजाओंको धारण करनेवाली अम्बिकाषी है ऐसा श्री अमितगतिमाचार्यने आराधनास्वनमें वर्षान किया है यह योग्य. ही है ऐसा हम समझते हैं.
इस भगवती अराधनापंथ में आराधकके मरणोंका विस्तृत विवेचन किया है. ऐसा वर्णन अन्यत्र इतना विरतारयुक्त नहीं है. प्रस्तुत ग्रंथमें मरणके १७ सत्रह प्रकारोंका विवेचन हैं उसमें भी पंडितपंडित मरण, पंडित्तमरण, बालपंहित मरण, चालमरण और पालचालमरण इन भरणों में आद्य के तीन मरण ही गिने हैं क्योंकि इन में समाधि मरण अर्थात सोखना मरण सिद्ध होता है. यह सल्लेखना मरण रत्नत्रयकी आराधनासे युक्त होनसे भव्यजीव इसक आश्रय लेकर संपटारपंजर को तोडफर मुक्त होते है.
मुनिओंके सल्लेखना मरणका अर्थात् भक्तप्रत्याख्यान मरणका आचार्य शिवकोटीजीने ४० चालिस अधिकारोंमें
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