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________________ मूलाराधना भावाम: विजयोदया-जं असमृनुम्भावणमेदं विदियं असंतवणं तु । यदसदुब्रायन द्वितीयं असदचस्तस्योदाहरणमुत्तरं । अधि सुराणमकाले मच्चुत्ति जयमावीयं । सुराणामकाले मृन्युरस्तीत्येवमादिकं या असदेव अकालमरणमनेनोच्यते इत्यसद्वचनम् ॥ अर्थ-जो नहीं है उसको है कहना यह असत्य वचनका दूसरा भेद है जैसे 'देवोंको अकाल मृत्यु नहीं हैं ऐसा आगम कहता है परंतु देवों को अकाल मृत्यु है ऐसा कहना. इत्यादि रूप असत्यका दूसरा प्रकार है. अहवा जं उम्भावेदि असंतं खेत्तकालभावहिं ॥ अविधारिय अस्थि इह पड़ोति जह श्वमादीयं ॥ ८२७ ।। विजयोदया-अथवाजं उम्भाषेदि यद्वचनं उद्भावयति । असंतं घटं । कथमसतं? खेसकालभावहिं क्षेत्रांतर संयंधित्वेन संत रहस्य घट कालांतरसंपंधेन असीते अनामते या असंतं भावानरसंबंधिवेन रुष्णावादिना संत । अविधारिय अधिन्चार्य इत्थं सत् इत्थमसत् इनि अस्ति घट इत्येवमदिकंसर्यवास्नियमसापयतीनि असहयने ।। अर्थ--अथवा द्रव्य क्षेत्रकालांतरसे घट न होने पर भी बिना विचारक सर्व द्रव्यक्षेत्रकालापक्षया घट है ऐसा कहना यह दूसरा उदाहरण है. जैस एक कोटरीमें घट है परंतु दूसरे कोठरीमें न होनपर भी दूसरे कोठरी में है ऐसा कहना. सफेत घट है परंतु कालाभी है ऐसा कहना. पर रूपसे घट नही रहता है परंतु उसके घरूपम भी वह है. ऐसा कहना, वर्तमानकालमेंही घट की सत्ता होनपरभी भूतकालमें भी था ऐसा कहना यह सब अमन्य के दूसरे मकारके उदाहरण है। तदियं असंतवयणं संतं जे कुणदि अण्णजादीगं ॥ अविचारित्ता गोणं अरसोत्ति जहेवमादीयं ॥ ८२८ ।। तृतीयं तद्वचाऽसत्यं यदनालोच्य भाषते ।। पदार्थमन्यजासीयं गौ जीत्येवमादिकम् ।। ८३७ ॥ विजयोदया-तदिय असंतवयणं तृतीयमसवचनं । संत जे कुणदि अण्णजादीगं सत्करोति अन्यजातीयं । अषिचारित्ता गोणं अस्सोत्ति जडेयमावीमा । अश्वमित्येवमादिकं । सतो बलीपईत्वात् अश्वत्वं असत्तस्य पचनं। 15
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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