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मूलाराधना
आश्वास
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अहवा सयबुद्धीए पडिसेधो खेत्तकालभावहिं ॥ अविचारिय णस्थि इह घडोत्ति जह एवमादीयं ॥ ८२५ ॥ कोलीति गद्भुते द्रव्यादीनां चतुष्टयम् ॥
अपोलोच्य यत्मोक्तमभूतोद्भावक जिमैः ।। ८३६ ।। विजयोन्याः-अथवा विद्यादवुद्धार पडिसधे शकालभावहिं अविनारिय भावमिति शेषः । म्वद्भया क्षेत्र काठमायभायमविचार्यमाण अत्र नास्ति इदानी न विद्यते । शक्लकृष्णरुपो न वेत्यनिरूप्य घटस्य भाव इथं अनन प्रकारण परिध घडो जा एवमादीणं नास्ति घट इत्येवमादिकं । पतो घटस्य अविशेषेण असंतवचनं असाचनभित्युदाहग्गाम्तरमिदं ।
अर्थ--अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन अपेक्षाओंसे विचार न कर यहां घड़ा नहीं है. इत्यादि रूप वचन अपनी बुद्धीसे कह देना. अभिप्राय यह है कि किसी अपेक्षासे घटकी सत्ता होने पर भी घट सर्वथा नहीं है ऐसा कहना यह भी असत्य वचन ही है. जैस काला घर नहीं है परंतु घरमें यदि श्वेतघट है तो घट है ही नहीं एसा कहना कैसा योग्य होगा? क्षेत्रकी अपेक्षास एक क्षेत्रमें घट न होगा. तो दूसरे क्षेत्रमें उसका सद्भाव होगा. परंतु स्वक्षेच परक्षेत्रका विचार न करके एकदम घट है ही नहीं ऐसा कहना असत्य ही है. वह अपने स्वरूपमें रहता है परंतु स्वस्त्ररूपकी अपेक्षासे भी नही है ऐसा कहना. यह असत्य है. मृतकालकी अपेक्षासे कोई घट न होनेपर वर्तमान कालकी अपेक्षासे भी उसकी सत्ता नहीं मानना यह कालकी अपेक्षासे निषध करना है इत्यादिक पहिले असत्य के उदाहरण हैं.
जं असभूदुष्भावणमेदं विदियं असंतवयणं तु ॥ अस्थि सुराणमकाले मच्चुत्ति जहेवमादीयं ॥ ८२६ ।। द्वितीयं तद्वचोऽसत्यमभूतोदावन मतम् ॥ अस्त्यकाले सुराणां च मृत्युरित्येवमादि यत् ।। ८३६ ।।