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________________ बलराधना अश्विास ४९९ सूरये कथयति सखित्ता वि य पबहे जह वच्चइ वित्थरेण बढती ॥ उदधि तण वरणदी तह गुणसीलहिं वाहि ॥ २८२ ॥ संक्षिप्तेहादितोऽम्भोधि गछन्तीय महानदी ।। विस्तरन्ती विधानध्या गुणशालमवर्तना ।। २८२ ।। विजयोदया-संस्थित्ता बियपबहे संक्षिप्रापिच प्रवाश्यहायस्माविति प्रवाहः उत्पत्तिस्थाने तत्र संक्षि प्लापि सती परनवी। जहा था जति । चित्थर पृथुलतया। पती वर्तमाना। उदधिक्षण यावरसमुद्रातह गुणसीलेईि चाहि तथा शीलगुणस्त्वं वर्धस्व । गणाधिपमनुशासितुं द्वादशगाथाः कथयति मूलारा-सखित्ता बिय कृशापि । पबहे प्रवहणारंभे बजदि प्रजति । नदाध तेण। समुद्रं यावत् । वाहि बर्द्धव त्वं भो गणाधिपते ॥ बालाचायको आचार्यका उपदेश - अर्थ-उत्कृष्ट नदी जहांसे उत्पन्न होती है वहां छोटी रहती है परंतु वह आगे गमन करते करते विस्तृत होकर समुद्रको प्राप्त होती है. पैसे हे बालाचार्य आप भी मारंभमें अल्प प्रमाणसे शील, बत, धारण कर उत्तरोत्तर शील और गुणोंसे बढनेका प्रयत्न करो.. मज्जाररसिदसरिसोवमै तुम मा हु काहिसि विहारं ।। मा णासेहिसि दोण्णि वि अप्पाणं चेव गच्छं च ।। २८३ ॥ मा स्म काबिहार व माजाररसितोपमम ॥ मा नीनशो गणं स्वं च कदाचन कथंचन ।। २८३ ।। विजयोक्या-मज्जाररसिदसरिसोयम माओरस्य रसित रटन मार्जाररसितं तेन सह सायं उपमा परि ४९९
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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