________________
मुलगिधना
आश्वास
०१३
विजा वि भत्तिवंतस्स सिद्धिमुचयादि होदि सफला य । किह पु णिव्बुदिबीजं सिझहिदि अभत्तिमंतस्स ॥ ७१८. ॥ जिनंद्रभक्तिरकापि निषे९ दुर्गति क्षमा ।
आसिद्धिलब्धि नो दातुं सारा सौख्यपरंपराम् ।। ७७५ ॥ सिद्धचैत्यश्रुताचार्य सर्वसाधुगता परा॥ विच्छिनति भवं भक्तिः कुठारीव महीरुहम् ।। ७७६ ।। नेह सिध्या विद्यापि FEE हिमा
किं पुनानपतयाज भक्तिहीनस्य सिध्यति ।। ७७७ ।। विजयोदया-विर विद्यापि । भत्तियंतम्म भातमतः सिद्भिावनादि सिसिमुपयाति । होदिसकला य फलवती च भवति । किध घुण कथं पुनः । णित्रुदियो निर्वतेगी मन्नत्रय || सिसहिदि सेत्स्यति || अमत्तिमंतस्स भानिरहितस्य ॥ क? अहंदादिषु ।
अर्थ -अकेली जिन भक्ति ही दुर्गतिका नाय कान में समर्थ है. इसमें विपुल पुण्यकी प्राप्ति होती है और मोक्षप्राप्ति होने तक इससे इंद्रपद, चक्रवर्तीपद, अहमिंद्रपद और तीथकरपदके सुखों की प्राप्ति होती है.
सिद्धपरमेष्टि, और उनकी प्रतिमा, आगम, आचार्य, सर्वसाधु, इनमें की हुई तीव्र भक्ति संसार का नाश करनमें समर्थ होती है. जो भक्तिमान है उसको इष्ट पदार्थीकी दात्री विद्या सिद्ध होती है. अधीत उससे इष्ट पदार्थ भक्तिमानको मिलते हैं, जो भक्तिहीन है अर्थात् जो अदादिकोंमें भक्ति नहीं करेगा उसको मुक्तिका पीज जो रत्नत्रय बह कसे प्राप्त हो सकेगा।
तसिं आराधणणायगाण ण करिज जो परो भर्ति ।। धति पि संजमंतो सालि सो ऊसरे ववदि ॥ ७१९ ॥ 'भक्तिमाराधनेशानां योऽकुर्वाणस्तपस्यति॥ स पपत्यूषरे शालीननालोच्य समं ध्रुवम् ।। ७७८ ॥