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आश्वासः
लाराधना
७.२
भक्तिमहन्स सिद्धेषु चैत्योवाचार्यसाधुषु ॥
विधेहि परमा साधो ! निश्चयस्थितमानसः ॥ ७७४ ॥ विजयोन्या- अरइंतसिदचेदियपवयणआयरियसबसाइसु अईत्सिद्धेषु तन्प्रतिबिवेषु, प्रवचने, प्राचार्येषु सर्वसाधुषु च । तिय्यं भत्ति फरेहि तीयां भाक्तिं कुर्विति । गिविदिगिछेण विचिकिम्सारहितेग । भावेन परिणामेन ॥
पराभत्ती इस पदका आचार्य स्पष्टीकरण करते हैं
अर्थ- अरहंत, सिद्ध, और उनकी प्रतिमायें, आगम, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु इनके ऊपर हे क्षपक? तुम मलिनपरिणामोंका त्याग कर तीय भक्ति करो.
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जिनभक्तिमाहात्म्यं कथयंति -
संमजकिरण गिराहा मंदरोग्य णिक्कंपा ॥
जस्स दृढा जिणभत्ती तस्स भवं णस्थि संसारे ॥ ७३५।। विजयोदया- संवेगजणिकरण संसारभीनया उन्मादितात्मालामा । णिस्ताला मिथ्यात्वेन, मायया, निदा. नेन, च गहता । मंदरोच णिकन्या मंदर इय निश्चला । जस्स दबा जिगभसी यस्य दृढा जिनभक्तिः । तस्म संसार भयं णस्थि तस्थ संसारनिमित्तं भयं नास्ति।
जिनभक्तिका माहात्म्य दिखाते हैं--
अर्थ- संसारभयसे उत्पन्न हुई, मिथ्यात्व, माया और निदानसे रहित, मेरु पर्वतके समान निश्चल ऐसी जिनभक्ति जिसके अंतःकरणमें हैं उस पुरुषको संसारमें किसी से भी भय उत्पन्न नहीं होगा. अर्थात् जिनभक्ति के प्रभाषसे उसका संसार नष्ट होकर उसको शीघ्र मुक्तिलाम होता है.
एया वि सा समत्था जिणभत्ती दुग्गई णिवारेण ॥ पुण्णाणि य पूरेदुं आसिद्धि परंपरसुहाणं ॥ ७४६ ॥ तह सिद्धचेदिए पवयणे य आइरियसव्वसाधूसु ॥ भची होदि समत्था संसारुच्छेदणे तिन्वा ॥ ७१७ ॥
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