SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 929
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाररचना ९११ लोक भी प्रदान किया तो भी उसकी कीमतकी भरपायी होती नहीं है. अर्थात् संपूर्ण त्रैलेाक्य देनेपर भी सम्यक्त्वरत्न मिलता नहीं. सम्मत्तस्स य लभे तेलोक्करस य हवेज जो लंभो ॥ सम्भहंसणलंभो वरं खु तेलोकलंभादो || ७४२ ।। द्रूण वि तेलोक्कं परिवडदि है परिमिद्रेण कालेन || लवूण य सम्मतं अक्खयसोक्खं वदि मोक्खं ॥ ७४३ ।। सम्यक्त्वस्य च यो लाभस्त्रैलोकस्य च यस्तयोः ॥ सम्यक्त्वस्य मतो लाभः प्रकृष्टः सारवेदिभिः ॥ ७७१ ॥ त्रैलोक्यमुपलभ्यापि ततः पतति निश्चितम् ॥ अक्षय लभते लक्ष्मीमुपलभ्य सुदर्शनम् ॥ ७७२ ॥ ददाति सौख्यं विधुनोनि दुःखं भवं लुनीते नयते विमुक्तिं ॥ निहन्ति निंदां कुरुते सपर्या सम्यक्त्वरत्नं विभाति किं न ॥ ७७३ ॥ सम्यक्त्वं । भाइयेाख्यानं ॥ सम्पनं ॥ विजयोदया स्पष्टार्थतया न व्याख्यायते साधयम् । अर्थ -- एक सम्यग्दर्शनका लाभ और दूसरा त्रैलोक्यका लाभ इन दो लाभों में सम्यग्दर्शनका लाभही श्रेष्ठ है. त्रैलोक्या लाभ होनेपर भी वह थोडे कालके अनंतर नष्ट होता है. परंतु सम्यग्दर्शनका लाभ जीवको अविनाशी सुख देनेवाले मोक्षकी प्राप्ति करा देता है, अतः सम्यग्दर्शनका लाभ त्रैलोक्यलाभ से भी श्रेष्ठ है. सम्य कत्वका वर्णन समाप्त हुआ. परामती इत्येतद्वाख्यानाय प्रबंध उत्तरः अरहंतसिद्धचेदियपत्रयणआयरिय सव्व साहू ॥ तिब्वं करेहि भत्ती भिव्विदिगिच्छेण भावेण ॥ ७४४ || मावास: ६ ८११
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy