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________________ मूलाराधना आश्वासः करनामकर्मणः कारणता । नान्यस्येति मन्यते । जादो खुजातः खलु । सेणिगो श्रेणिकः । आगमेसि भविष्यति काले । थर हो अईन् । अविरदो वि असंयतोऽपि सन् । ननु श्शेषिको भविष्यत्याईन् न त्यहस्यं तस्यातीतं तेन कथमुच्यते जात इति । भविष्यदर्दपं न निष्पन्नं इति युक्तमुच्यते जात इति । अकेला भी सम्यग्दर्शन माहात्म्ययुक्त होता है ऐसा विवंचन आचार्य करते हैं अर्थ- शंका, कांक्षा बगरह अतिचारोंसे रहित अविरन सम्यग्दृष्टीको भी तीर्थकरनाम कर्मका वध होता है. अप्रत्याख्यानावरणी कोध, मान, माया और लोभ इनका उदय होनेसे परिणामों में हिंसादिकोंसे विरक्तता उत्पन्न न होने पर भी केवल निरतिचार सम्यग्दर्शन धारण करनेवाले मनुष्यको तीर्थकर कर्मका बंध होता है, शंका-विनयसंपन्नता वगैरह अन्य कारणोंसे भी तीर्थकरत्वको प्राप्ति होती है. सम्यग्दशनमें ही ऐसी क्या विशिटता है ? उत्तर-सम्यग्दर्शन होनेपर ही बिनयसंपन्नतादिक तीर्थकर कर्म बंधके कारण होते हैं अन्यथा उनमें कार• णता नहीं हैं. केवल सभ्यग्दर्शनके साहायतासे ही श्रेणिक राजा भविष्यत्कालमें अरहंत हुआ है. शंका-श्रेणिक भूपाल भविष्यकालमें अईन होनेवाला है उसका अहंदावस्था प्राप्त होचुकी है ऐसा नहीं है. अतः वह अहंत होगया ऐसा क्यों कहते है ? उत्तर-भविष्य कालीन अर्हतपन अभी निष्पन नहीं हुआ है इसलिये वह होगया ऐसा कहना योग्य है. कल्लाणपरंपरयं लहंति जीवा विसुद्धसम्मत्ता ।। सम्महंसणरयणं णग्यदि ससुरासुरो लोओ ॥ ७४१ ।। अच्छिन्ना लभ्यते येन कल्याणानां परंपरा मूल्यं सम्यक्त्वरत्नस्य न लोक तस्य वियते ।। ५७० ।। विजयोन्या-राणपरंपरयं कल्याणपरंपरां । रंद्रत्वं, सकलचकबनतां, अहमिहत्वं तीर्थकसमित्याधिक लभंते जीवाः । बिसुद्धसम्मत्ता विशुद्धसभ्यश्वाः । सम्मईसणारयणं सम्यग्दागरत्नं । णग्यदि ससुरासुरो लोबो सकलो लोको मूल्यतया दीयमानोऽपि न लभते सम्यक्त्वरत्नमित्यर्थः ॥ अर्थ-इस निर्मल सम्यग्दर्शनसे इंद्रपदवी, चक्रवर्तीपना, अहमिंद्रावस्था और तीर्थकरपद एसी कल्याण परंपरा उत्तरोत्तर जीवको मिलती है. यह सम्यक्त्व रत्न इतना मूल्यवान है कि देव और असुरासहित यह संपूर्ण
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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