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मूलाराधना
आश्वामः
अब आचार्य के प्रकुर्वित्त्व नामक गुणका वर्णन करते हैं
अर्थ-क्षपक जब वसतिकामें प्रवेश करता है अथवा बाहर जाता है उस समयमें, वसतिका, संस्तर, और उपकरण इनके शोधन करनेके समय में, खदे रहना, धैठना, मोना, शरीरमल दूर करना, आहारपानी लाना इत्यादि कार्य में जो आचार्य क्षपकके ऊपर अनुग्रह करता है उसको प्रकुर्वी कहते हैं. इत्यादिकार्यके करते समय आचार्य मनमें जुगुप्सा नहीं करते हैं,
अन्भुजदचरियाए उवकारमणुसरं वि कुव्वंतो ॥ सव्वादरसचीए वट्टइ परमाए भत्तीए ॥ ४५६ ॥ उत्थापने मलत्यागे सर्वत्र विधिकोविदः॥
परिचाविधानाय शक्तितो भक्रुितो रतः ॥ ५६८ ।। विजयोदया - अभुज्जदचरियाय क्षपकस्य अभ्युद्यतचाया उपकार अनुग्रह इस्नावलंयनादिक । अणुत्तरं पकुव्वतो उत्कएं प्रकुर्चन् । स-
पासीर सादरशकस्याभि-सीएमक्या परमाया । बट्टदि यतते । सप्रन्धका सूरिभवति इति संबंधः।।
मूलारा-अभुज्जदचरियाए पंडितमरणोपक्रमे । सम्वादर सर्वप्रयत्नेन ॥
अर्थ- उपयुक्त कायम प्रकुनी मुपाके धारक आचार्य हाथ अवलंब दना नगरह द्वारा अपकके ऊपर अनुग्रह करने हैं. यह अनुग्रह भक्तिपूर्वक और उलष्टतास करते
इय अप्पपरिस्सममगणित्ता खवयस्म सबडियरणे ।। बर्सेतो आयरिओ पकुब्बओ णाम सो होइ ॥ ४५७ ॥ आत्मश्रममनालोच्य क्षपकस्योपकारकः ।। प्रकारको मतः सूरिः स सर्वादरसंयुतः ॥ ४६९ ॥
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