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मुन्नाशघना
आश्वास
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विजयोदया-इय एवं | अप्पपरिस्सम आत्मपरिधर्म। अगणित्ता अपरिगणय्य । खचयस्स आराधकस्य । सय्वपचिरणे सर्वशुश्रूषायां । यहूंतो वर्तमानः । आयरिओ आचार्यः । पगुम्यो णाम प्रकुर्वको नाम 1 होदि स भवति । पकुवीगदं ।
मूलारा-सव्वपटिचरणे सकलशुश्रूषायां । पकुबगो प्रकारकः ।।
अर्थ- इस प्रकार क्षपककी सर्व प्रकारकी शुश्रुषा आचार्य करते हैं. उसमें बहुत परिश्रम पटने पर भी वे विन नहीं होते है. एस आचार्य को प्रकुर्वी आचार्य करते हैं इस प्राचार्य का स्वरूप कहा है,
क्षपशिक्षापरा गाथा--
खवओ किलामिदंगो पडिचरयगुणेण णिव्वुदि लहइ ॥ तझा णिन्चिसिव्वं खवएण पकुव्ययसयासे ।। १५८ ॥ निपीज्यमानः क्षपका परीषहैः सुखासिकां याति सहायकौशलैः॥ यतस्ततस्तेन समाधिमिच्छता निषेवणीपा गुरवः प्रकारकाः ॥ ४७० ॥
इति प्रकारकः। बिजयोदया-खयगो क्षषक: किलामिदंगो ग्लानशारीरः। पडिचरयगुणेण शुधृपागुणेन, णिवुदि लहदि सुखं समते । सबमेण सपकेण । पकुरघयसपास बिनयकारिणः समीपे । पगुब्बीगर्ने ।
प्रकारकसमीपनिवासाय आपके शिक्षयतिमूलास-गिलामिदंगो ग्लानशरीरः। पहिचरियगुणेण प्रतिचारकोपचारेण । णिचुदि सुख ॥ प्रकारकः ॥ आगे क्षपकको उपदेश देते हैं
अर्थ-रोगसे ग्रसित क्षपकमुनि आचार्यके द्वारा की गई शुश्रूषासं सुखी होता है, अवः क्षएकको शुश्रूषा करनेवाले आचायक पास ही रहना श्रेयस्कर है, प्रकुर्वी गुणका वर्णन समाप्त हुआ.
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