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मूलाराधना
आवास
शुदाः संति सहनशः स्वभरणव्यापारमामोद्यताः । स्वार्थी यस्य परार्ध एव स पुमानेका सतामणीः ।। दुपूरोवर पूरणाय पिवति सोतापति पाडयो।
जीमूतस्तु निदाघसंभृतजगरसंसापपिच्छिराये ॥ स्वयूथ्यस्यानिष्टमपि पन्यं प्रायगित्यनुशास्तिमूलारा--पत्थमित्यादि-परविप्रियणोक्तन फिमस्माकमिति स्वाश्रमवासी नोपेक्ष्यः यतः
क्षुद्राः सन्ति सहस्रशः स्थभरणन्यापामात्रोद्यताः ।। स्वार्थों यस्य परार्थ एन रख पुगानेकः सनामयणी: 11 दुरपूरोदरपुरणाय पिबति स्रोतःपत्ति वाडयो ।।
जीमूतस्तु निदाघसंभृतजगत्संतापविक्रित्तये ।। अर्थ-हे मुनिगण ! तुम अपने गणमें रहने वाले मुनिके साथ हितकर बचन बोलो. यद्यपि वह हृदयको अप्रिय हो तो भी हरकत नहीं है. जैसे कटुक भी औषध परिणाममें मधुर, कल्याणकारक होता है वैसे तुम्हारा भापण उस युनिका कल्याण करेगा, दुमरेको अनिष्ट बोलनेसे हमारा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ? क्या दुसरा मनुष्य अपना हिन स्वयं नहीं जानता है ! ऐमा विचार करके दुसरों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये. परोपकार करनेका कार्य करना ही चाचिय. देखो नीथकर परमदेव भव्य जनोंको उपदेश दनक लिगानीथविहार भगविहार करने हैं, परोपकारक कार्य कमर कमना यही बडप्पन है. किसी कविने गमा कहा
"जगतमें अपना कार्य करने में ही तत्पर रहनेवाल मनुष्य हजारों की तादान में हैं, परंतु परोपकार ही जिसका स्वार्थ है ऐमा सत्पुरुषों में अग्रणी पुरुष एकाद ही है. वडवानल अपना दुभर पेट भरनकलिग समुद्रका हमेशा पान करता है क्योंकि वह क्षुद्र मनुष्य के समान स्वार्थी है, परंतु मघ ग्रीष्मकालकी उष्णतासे पीडित समस्त प्राणियोंका संताप मिटाने के लिये समुद्रका पान करता है. मेघ परोपकारी है और बडवानल स्वार्थी