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मूलाराधना
आश्वासः
वर्ण दीखता था उससे भिम मलिन ऐसा वर्ण होता है. उसकी कांति चष्ट होती है. अरति-तिरस्काररूप अग्रीसे यह जलने लगता है. जाडेके समयमें भी उसको प्यास लगती है. और पिशाचपीडित मनुष्पके समान वह कंपता है,
भिउडीतिवलियवयणो उग्गदणिस्चलसरचलक्खक्खी ॥ कोवेण रक्खप्तो का जराण भीमो परो भवदि ॥ १३६१ ।। अभाष्या भाषते भाषामकृतां कुरुते क्रियाम् ॥ कोपब्याकलितो जीवो ग्रहास इय कम्पते ॥ १४१३ ॥ त्रिवलीकालतालीको रक्तस्तब्धीकृतेक्षणः ।।
वंतदष्टाधरो दुष्टो जायते राक्षसोएमः ।। १४१४ ।। विजयोदया-भिउडीतिघलियययणो भृकुटीनियलिसवदनो । उम्गदपिश्चलमुरत्तटुसत्थो उवनिश्चलसरकरूप होमेण दोघेण हनुमा । मनसो राक्षस इव । पारापा भीमो पारो होदि। नराणां भीमो भयाबहोभवति नरः ॥
मूलारा-तिबलिद ललाटवलित्रययुक्तं । उग्गद निर्गत । लुक्सक्खो रूक्षचक्षुः । भीमो भयावहः॥
अर्थ-क्रोधसे भोहें चढ़ती हैं और ललार तीन बलिऑसे युक्त होता है, क्रोधसे आंखे बद्दी वही होती हैं, निश्चल होती हैं और लालसुर्ख होती है. तब मनुष्य मानो राक्षसके समान भयानक दीख पडता है.
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जह कोइ तत्तलोह गहाय रुट्ठो परं हणामिति ॥ पुन्बदरं सो डझदि डहिज्ज व ण वा परो पुरिसो ॥ १३६२ ।।
आददानो यथा लोहं परदाहाय कोपतः ॥
स्वयं प्रदाते पूर्य परवाहे विकल्पनम् ॥ १४१५ ॥ विजयोदया-जह कोर यथा कभित्तत्तलोइंगहाय सप्तलो पहीत्वा । किमर्थ रहो परं हणामिसि रुपः परं इम्मीति । पुन्चदरं सो उज्झदि पूर्वतरं स पष दयते तेन तन लोशन गृहीतेम । उजिमजस परो ण या पुरिसो यछते पर। पुरुषो न या दयते ॥
मूलारानहाय गृहीत्वा वर्तमानः ||
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