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________________ गवना आश्रास ११२८ team-/ .Lessuna A+A+ CAMATTATRAPALTASBIRe- Aa+PARAMPARANORAKPBM मतदयाह भाग--ानी गरमः । सानाकरमानन्यगता क्तिः । मगज्ञा पकरणदशनजामा रग्रामिपिन कमी भने अनिच्छानुन नथा ज्ञानमित्यर्थः । गरबा: परिप्रदनाम्नीनाभिापाः । उदिष्णागि दिनानि । त तान आयानित्यर्थः । इन लोसरागी नया संहागौवे व्यक्तिवां गते ॥ वदा तदा बहिथान्यदीतुं कुरुते सति ।। ___ तस्मायो बाझं गृहाति परिमई स नियोगतो लोभाद्यशुभपरिणामवानेवति कर्मणां बंधको भयति । ततस्याज्या एव रायाः परिग्रहाः । कर्मबंधनिबंधनभूच्छानिमित्तत्यान् । तथा पोक्तम मुलक्षणकर पासुघटा व्याप्तिः परिप्रइत्यस्य ।। संप्रयो मूवान्विनापि फिल शेष संगेभ्यः । ययेयं भवति तदा परिग्रहो न खलु कोऽपि बहिरंगः ।। भवति नितरां यतोऽसौ थत्ते मुर्छानिमित्वम् । एवमतिव्याप्तिः स्यात्परिमहस्येति चेवेनैषम् ।। यस्मादकथायाणां कर्मप्रहणे न मास्ति ॥ इसी अभिप्रायका आगेकी माथा खुलासा करती है अर्थ-रागभाव, लोभ, और मोह जब मनमें उत्पन्न होते हैं तब इस आत्मामें बाझ परिग्रह ग्रहण करनंगी बुद्धि, उत्पन्न होती है. अन्यथा नहीं. यह मेरा है ऐसा भाव मनमें उत्पन्न होना उसको राग कहते हैं. पदार्थों के गुणों में असक्ति होना ही लोभ कहलाता है. परिग्रहमें इच्छा उत्पन्न होना मोह कहा जाता है. ये पदार्थ मेरे हैं और अच्छा है ऐसा अभिप्राय रहना संज्ञा है. परिग्रहोंमें तीन अभिलाष उत्पन्न होना गौरव कहलाता है. ये परिणाम जब आत्मामें उत्पन्न होते हैं व यह आत्मा परिग्रहमें अपना मन लगाता है. उपर्युक्त परिणाम जब आरमामें उत्पन्न नहीं होते हैं तब परिग्रहका ग्रहण करनम वह उद्युक्त नहीं होता है. इसलिए जो बाह्य परिग्रह ग्रहण करता है वह नियमसे लोभादिक अशुभ परिणामोंसे घिरा हुआ है ऐसा समझना चाहिय, अत: उसको कर्मबंध - -
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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