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मृलारापना
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करते हैं जैसे घटार्थी चक्रादिक कारणाको ग्रहण करते हैं, उसी तरह मुनिगण भी मुक्तिका उपाय जो अंचलना उम का अंगीकार करने है, इरा अचलदाको लिबान इत्तिका उपाय है एला समझकर धारण किनाश. जन जिनेश्वरीने ज्ञानाचार और दर्शनाचार धारण किये थे बसे उन्होंने अंचलता भी धारण कीथी.
बीयांचार-अंचलनाग वीर्याचार गुणकी प्रानि होती है. बीयन्तिरायकर्मका श्योपशम होने जो भामा में सामध्यपरिणाम. उत्पन्न होता है उसको वीर्य करते है. इस वीर्यको न छिपाकर मनायो प्रवृत्ति करना बीयाचार है. ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप आचार व वायांचार ऐसे आचारोंके पांच भेद आगे ग्रंथकार कहेंगे ही. जिसने अचलता धारण की है उसने अशक्य वखत्यागको शक्य करके दिखाया है. यदि वस्त्रत्याग मुनिओंने नहीं किया तो परिग्रहत्याग नामका पांचवा महावत जन्होंने पाला नहीं है ऐसा समयाना चाहिये. सामर्थ्य होकर भी वस्त्रका त्याग न करनेसे परिग्रहत्याग महावत कैसे पाला जायगा,
रामाददोस परिहरण-यह मी गुण अचेलतासे ही मिलता है, वखका लाभ होनेसे उसमें आसक्ति हो जाती है, उसकी प्राप्ति न होनेसे मनमें कोप घर करता है. वस्त्र मिलनेसे बह वस्त्र मेरा है ऐसी. मोहभावना उत्पन्न होती है, अथवा ओक्ने के पहरनेके वस्त्रों में मृदुपना, दृढता वगैरे गुण देखकर प्रेम उत्पन्न होता है तथा उसके कठोरस्पर्श, जल्दी फट जाना इत्यादिक दोष अनुभव में आनेसे उससे मेष उत्पन होता है. बत्रका त्याग करनेसे ये सर्व रागादि दोष नहीं रहते हैं, अर्थात् अचेलताके धारण करनेसे पूर्व गाथाओंमें कहे हुए सब महागुण मुनिराज को मिलते हैं. वस्त्रका त्याग करनेसे याचना दोष नष्ट होता है. दीनता और संक्लेशपरिणाम विलीन हो जाते हैं.
पुनरप्यचेलतामाहाम्यं सूभय युभर गाथा---
इय सबसमिदकरणी कामासासयममणकिरियास ।। गिगिणं गुन्तिमुबगड़ो पन्गहिददरं परक्रमदि ।। ८६ ।। सम्यकप्रवृत्तनिःोषच्यापार समितेन्द्रियः ॥ इस्थमुत्तिष्ठते सिद्धी नारयगुप्तिमाधिधिनः ॥ ८७ ।।