SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नारावना १० कार होनेसे यहां सिद्धों को नमस्कार किया है अथवा श्रुतसाधकों पर अनुग्रह करनेका अधिकार होनेसे सिद्धों को बंदन किया है? दूसरा पक्ष मानेंगे तो भी आपका मत सिद्ध नहीं होता है। क्योंकि, सामायिकसे लेकर लोक बिंदुसार पर्यंत जितना द्वादशांग है उसकी रचना गणधरोंने की हैं. उसके प्रारंभ में गणधरोंने ' णमो अरहंताणं ' इत्यादि वाक्योच्चार करके पंचपरमेष्ठिओं को नमस्कार किया है। यह भी आपके मंतव्यके विरुद्ध है । यतः पंदण मोकार रूप मंगलमें प्रथम अरहंत परमेष्ठीको नमस्कार किया है. अनंतर सिद्ध परमेष्ठीको किया है। परन्तु " सिद्धे जयप्पसिद्धे " इस मंगल गाथामें प्रथमतः सिद्ध परमेष्ठीको अनंतर अरहंत परमेष्टीको नमस्कार किया है। यदि अस्परमेष्ठी भी सिद्ध ही है ऐसा कहोगे, तो सिद्धपरमेष्ठिओंका ' सिद्धे जयप्पसिद्धे ' इस वाक्यसे स्मरण किया ही है फिर अर्हत्परमेष्ठीका सिद्धत्वरूपसे स्मरण करना व्यर्थ होता है। यदि अर्हत्परमेष्ठी एकदेशसिध्द हैं इस वास्ते उनको पृथक नमस्कार किया है ऐसा कहोगे, तो आचायदि भी एकदेशसिध्द हैं, उनका ग्रहण क्यों नहीं किया यह प्रश्न उपस्थित होगा. एकदेश सिध्द होने पर अहंत भी आराधक हैं ही तो भी, उनका मंगलरूप समझ करके ग्रहण किया है ऐसा कहोगे तो तुम्हारा यह विवेचन विरुध्द होगा. अतः इतने विवेचनका यहां यह अभिप्राय है कि, यह ग्रंथ रखनेवाले आचार्य श्री शिवकोटिकी यहां क्रम विवक्षा नहीं है. अतएव उन्होनें प्रथम सिध्द्ध परमेष्ठीको, अनंतर अईत्परमेष्ठीको नमस्कार किया है. यहां संक्षिप्त गाथार्थ इस प्रकार है" . जिन्होंने चार आराधनाओंका फल प्राप्त किया है, जो जगतमें प्रसिध्द हुए हैं ऐसे सिध्द परमेष्टीओंको, तथा सिध्द के समान जिनको चार आराधनाओंका फल मिला है ऐसे जगत्प्रसिध्द अर्हत्परमदेवको भी वंदन कर मैं ( श्री शिवकोट्याचार्य ) क्रमशः - पूर्वाचार्य प्रणीत शास्त्रों के अनुसार इस आराधना ग्रंथको कहता हूं अर्थात् भगवती आराधना नामक ग्रंथ की रचना करता हूं. ' सिद्धे जयपसिद्धे' इस गाथामें जो सिद्ध शब्द आया है उसके नाम, स्थापना, द्रव्य व भाव ऐसे चार अर्थ हैं. इन अर्थोक विशेष विवेचन इस प्रकार है १ नाम सिद्ध- क्षायिक सम्यग्दर्शन, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मता, संसारावस्था में प्राप्त न होनेवाली अवगाहन शक्ति तथा सर्व बाधाओंसे रहितपना ऐसे गुणों की अपेक्षा न करके सिद्धशब्दको प्रवृत्तिके निमित्त किसी अध्याय १
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy