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मूलाराधना
आश्वासा
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अर्थ-भावशल्यके तीन भेद है. दर्शन, ज्ञान, चारित्र और योग इनमें ये भावशल्य उत्पन्न होते हैं. १ शका, काक्षादिक सम्यग्दर्शनके शल्य है. २ अकालमें पदना और अविनयादिक करना ज्ञानके शल्य हैं. ३ समिति और गुप्तिओमें अनादर रहना चारित्रशल्य हैं. ५ योग-तप-अनशनादि नपोंके अतिचारोंका पूर्वमें वर्णन आया है.
असंयममें प्रवृत्ति होना योगशल्य है. तपश्चरणका चारित्रमें अन्तर्भाव करनेकी विवक्षासे भावशल्यके तीन भेद कहे है
द्रव्याल्य भी तीन प्रकारका है, सचित्तशल्प, अचित्तशल्य और मिश्रशल्य. दासादिक सचिन द्रव्य शल्य है. सुवर्ण वगैरह पदार्थ अचिर शत्य है, और प्रामादिक मिश्रशल्य है ये सब चारित्राचारके शल्यके कारण है. भावशल्यानुद्धरणे दोगमाह
एगमवि भावसल्लं अणुद्धरित्ताण जो कुणइ कालं ॥ लज्जाए गारवेण य ण सो हु आराधओ होदि ॥ ५४०।। अनुद्धते प्रमादेन भावशल्ये शरीरिणः ।। लभंते दारुणं दुःखं द्रव्यशल्यमिवानिशम् ।। ५६० ॥ भावशल्यमनुद्धत्य ये नियन्ते विमोहिनः ।। भयप्रभादलज्जाभिः कस्याप्याराधका न ते ॥ ५६१ ॥ दुःसहा वेदनकत्र द्रव्यशल्ये
भावशल्ये पुनः सास्ति अन्तोजन्मनि जन्मनि ॥ ५६२॥ बिजयोदया--पगमवि एकमपि भाषानां रत्नत्रयाणां शश्यं । यतिवारं । अणुवरित्ताण अनुत्य । जो कुणदि कालं यः करोति मरणं । कस्मानोद्धरति । लज्जार लज्जया! गारषेण य गारवेण वा। सो ण स्टुआराधगो होदि । स माराधको नैव भवति 1 निरतिचारता हितेषां यतीनां माराधना ॥