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________________ मूलारामना भावास हे भूपक मने! - नीनों कालमें मनवचन कायसे सर्व परिग्रहोंकी आशा और तृष्णाका त्याग कर. संग, ममत्व और मृच्छका त्याग कर. चिरकालतक मेरेको सुख देनेवाले विषय उत्तरोत्तर अधिक प्रमाणसे मिले ऐसी इच्छा रखना उसको आशा कहते हैं. तृष्णा-ये सुखदायक पदार्थ कमी भी मेरेसे अलग न होचे ऐसी तीव अभिलाषाको तृष्णा कहते हैं, संग-परिग्रहोंमें अतिशय तन्मय होना. ममत्व-ये पदार्थ मेरे भोग्य हैं मैं इन का मोक्ता हूं ऐसा मनमें | संकल्प करना. और मुर्छा अर्थात् मोहयुक्त बनना. हे क्षपक तूं आशा, तृष्णा, संग, मृच्छी वगैरह अशुभ भायोंको छोड़ दे. परिप्रहस्य त्यागजम्पसुखातिशयमिह जन्मनि प्राप्यं निर्दिशत्युत्तरगाथा सवग्गंथविमुक्को सीदीभूदो पसण्णचित्तो य ॥ जं पावइ पीयिमुहं ण चक्कवट्टी वि तं लहइ ॥ ११८२ ॥ समस्त ग्रंथनिमुत्ता प्रसन्नो निताशयः॥ यत्प्रीतिसुग्चमाप्नोति तत्कुतश्चक्रवर्तिनः ।। १२२० ॥ विजयोदया-सत्वगंधविमुको परित्यक्ताशेषवायाभ्यंतरग्रंथः । मीदीभूदो शीतीनः । पसनचित्तो य प्रसन्नचित्तः सन् । जे पायदि पीदिनुहं यत्पामोति भीत्यात्मक सुखं । वात्रट्टी विलयदि चक्रवर्त्यपि न समेत ॥ वाह्याभ्यंतरपरिग्रहत्यागसमुद्भवं सुग्वातिशयमिह जन्मनि प्रापमुपदिशति-- भलारा-सीदीभूदो यंथेवितिकर्तव्यतापितापासुटत्वासंतापनिवर्तनान,त्यं प्रापः । पीगिनुहं आनंदामकं सौस्यम ॥ परिग्रहका त्याग करनेसे जो सुखातिशय इस जन्म में प्राप्त होता है उसका आगेकी गाथामें उल्लेख करते है अर्थ-जिसने पायाभ्यंतर परिग्रहोंका त्याग किया है वह शीतीभूत होता है अर्थात् परिग्रह रहनेपर उसकी रक्षा करनकी चिंता उत्पन्न होती है. व्याकुलता बढनेपर मन संतप्त होता है. परिग्रहका त्याग करने से संतापका नाश होता है. जिससे मुनिराज शीतावस्थाको नाम होत हैं. उनका अन्तःकरण प्रसन्न होता है, अतः ऐसी अवस्थामें जो सुख उनको प्राप्त होता है वैसा चक्रवर्तीको भी प्राप्त नहीं होता है. HTTARAHARAMATTA
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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