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मूलाराधना
आचार
क
यदि संति गुणास्तस्य निकषे संतिते स्वपम् ।।
महि कस्तूरिकागंधः शपथेन विभाज्यते ॥ स्वगुणास्तपने गुणमाह--
मूलारा-अविकरतो अस्तुवन् । सगुणोब गुणवानिव । ण थोलेदि न स्तौति । सभीचीन ज्ञानादिगुणाभाषानिर्गुणः स्वस्तबनाकरणगुणेन गुणवानिति भावार्थः ।।
अपने गुणोंका वर्णन न करनेमें ही फायदा है इसका विवेचन आचार्य करते हैं --
अर्थ-जिसमें गुण नहीं हैं ऐसा पुरुष सज्जनोंमें मौन धारण कर घटना है तब वह गुणी पुरुषकं ममान दीखता है. गुणरहित मनुष्य गुणयानके समान मानना यह परस्पर विरुद्ध है इस शंकाका उत्तर ऐसा है--अपनी प्रशंसा नहीं करना यही सद्गुण है इससे वह पुरुष गुणी कहा जाता है, यद्यपि उसमें सम्यग्ज्ञान, दर्शनादिगुणोंका अभाव होनेसे वह निर्गण है तो भी स्वप्रशंसा न करना यह गुण उसमें होनेसे गुणवान के समान वह पुरुष माना जाता है. यदि मनुष्य में गुण हो तो वे स्वयं प्रकाशित होते हैं. उनके वर्णन की कुछ भी आवश्यकता नहीं है. क्या करतरीका सुगंध सार्गध खाने व्यक्त होना है ? नहीं वह स्वयं प्रकट होता है. वैसे गुण मी म्बयं प्रकट होते हैं.
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वायाए जं कहणं गुणाण तं णासणं हरे तमि ।। होदि हु चरिदेण गुणाणकहणमुब्भासण तेसिं ।। ३६५ ।। गुणानां नाशनं वाचा क्रियमाणं निवेदनम् ।।
प्रकाशनं पुनस्तेषां चेष्टयास्ति निवेदनम् ।। ३७० ।। विजयोदया-चायाए कहणं चाचा गुणानां यत्कथनं । तं णासण हये तेसि । तन्नाशनं भत्तेषां गुणानां । चरिददि गुणाण कहां चरितरेष गुणानां कथनं । तेसि मुभावर्ण हो गुणानां प्रकटनं भवति । एतदुक्तं भवति-- गुणाप्रकटयितुकामस्य यद्वाचा कथनं गुणेषात्मनः प्रवृत्तिरेव गुणप्रकाशनं रति ।
गुणानां यद्वाचा कथनं तत्तेयां नाशनं यत्तु गुणेष्वात्मनः प्रवृत्तिस्तत्तत्प्रकाशन इत्याद--