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________________ आश्वासः मूलाराधना sale ज्ञानावरणयोक्यानाशो मतिश्रुतझानहीनो भवति । शुभपरिणामसंपायं तवावरणक्षयोपशमविशेष कदाचित्कचिदेव प्रानोतीति तत्त्वविवेकबुद्धिरप्यनेन बराकेण दुरवापा । सवण यतीनां शुसज्ञानप्रवीपनिरस्तांतस्वमसा विरागद्वेपाणां, करुणापरतंत्राणां, परहितप्रतिपादनककार्याणां अतिदुर्लभत्वातीप्रमिथ्यात्वकृतगुणिजनद्वेषेण, मिथ्याज्ञानलवलाभदुर्विग्धतया, स्वरहीततक्वपरवशतया, अलसतया, यतीनां स्वपरोद्धरणभावीण्यापरिक्षानाहा, प्रश्रयेण वदुपसर्पणाभावान्, कथंचित्पापोपशमातदुपसपणेऽपि विनयपुरःसरं संप्रश्नस्य कदाचिदेव संभवाच । मनुष्य त्वादिसप्तकप्राप्तावपि जीवस्य सद्धर्भश्रवणं दुष्पापं ।। यतिजननिकतने गतोऽपि यदृच्छया निद्रायति, स्वयं वा परेषां यत्किचिदसारं वदति, मुग्धानां चा वचनं शृणोति, विनवेन बा ढोकते । इति दुर्लभा धर्मतिः । गणाणि श्रुतेऽपि धर्म तत्परिज्ञानं अतिदुर्लभं । श्रुतशानावरणोदयादात्मनः प्रणिधानस्य दुष्करत्वाब्जीवादितत्वस्य कदाचिदच्य श्रुतपूर्ववारसूक्ष्मत्वाच्च । ज्ञातेऽपि धर्मेऽस्ति धर्मः सम्यक्त्वाधात्मकोऽभ्युदयनिःश्रेयसफलप्रदो जिनोक्त इति श्रद्धानमधिदुर्लभतमं कालगतिलकनीनां सम्मान । और भी बातोंको दुर्लभता आगकी गाथासे दिखाते हैं अर्थ-देश, कुल, रूप आरोग्य, आयुष्य, बुद्धि, श्रवण, ग्रहण, ये गते मनुष्य जन्म मिलनेपर भी दुर्लभ है. मनुष्यगति नायकर्मके उदयसे मनुष्यपना प्राप्त होता है. तो भी जिनमणीत धर्मसे प्रगल्भ मानव जिनमें | रहते हैं ऐसे देशमें जन्म होना बहुत दुर्लभ है. अंतीपोंमें जन्म होकर भी मनुष्यता मिलती है. शक, यवन, किरात, चर, पारसीक, सिंहलादिक देश धर्मज्ञ मनुष्योंसे रहित है ऐसे ही देश बहुत है. जहां सज्जन रहते हैं ऐसा देश प्राप्त होनेपर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यादिक इलोंकी प्राप्ति होना दुर्लभ है. क्योंकि उत्तम कुल दुनियामें अल्प है. बारबार नीनगोषका बंध होता है. प्रायः मिथ्यात्वका उदय होनेसे मनुष्य गुणोंकी और गुणिजनोंकी निंदा करने लगता है. निर्गुण होनेपर भी अपने कुलका अतिशय अभिमान धारण करता है. ऐसे अभिमानसे यह जीव नीच गोत्रका संचय करता है, गुणमें और गुणिजनमें प्रेम होना, अपने कुलाभिमानका तिरस्कार होना यह बातें अत्यल्प पायी जाती है इसलिए उत्तम कुलकी प्राप्ति कचित् होती है. चारित्रमोहनीयके उदयसे यह आत्मा हमेशा षटकाय जीवोंका नाश करने में हमेशा उद्युक्त होता है. उन जीवोंकी रूपशोभाको विगाडता है इससे अशुभ नाम कमका बंध होता है. इस कर्मका उदय होनेपर यह जीव अनेक बार विरूप होता है. १६७५
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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