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आषा
मूलाराधना
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वाचिकः । अन्यत् कुर्वत इयान्यस्य कायनाकरणं कायिकः । द्रव्यतो लोभविवको यत्रास्य लोभस्तदुदिश्य कराप्रसार. णादिकः कायेन । ममेदमित्याचवपन वाचा । भावतस्तु ममेदभावरूपमोहजपरिणामापरिणतिः । वैयावत्यकरैः सहासंवासः, कायेन मा कृथ्वं वैयावृत्यं मया त्यक्ता यूयमिति वचनं वाचा तद्विवेकः।।
पांच प्रकारके विवेकौंका वर्णन करनेवाली गाथा
अर्थ---इंद्रियविवेक, कषायविवेक, भक्तपानविवेक, उपधिविवेक, देहविवेक ऐसे विवेकके पांच प्रकार पूर्वागममें कहे हैं।
यह विवेक द्रव्यविवेक और भावविवेक ऐसा दो प्रकारका है.
इंद्रियविवेक-रूपादि विषयों में नेत्रादिक इंद्रियोंकी आदरसे अथवा कोपसे प्रवृत्ति न होना. अर्थात् यह रूप में देखता हूं. शब्द मैं सुन रहाई, इस रीतीसे प्रवृत्ति न होना. मैं उसके कठिन कृचतट-स्तन देखता दूं, मैं उस स्त्रीके नितंबको तथा वक्षस्थलके उपरकी रोमपंक्ति देखता हूं. उसके विस्तृत जघनका स्पर्श करता हूं. उसका मधुर गायन सावधान होकर सुनता हूं. उसके मुखकमलका सुगंध नाकसे ग्रहण करता हूं. उसके अधरोष्ठका रस पीता हूं. ऐसे वचनोंका उचारण न करना यह द्रव्यतः इंद्रियविवेक है.
भावइंद्रिय विवेक-स्पादि विषय और स्पर्शनादि इंद्रिय इनका संबंध होने पर भी जो रूपादिका ज्ञान होता है उसको उपयोगात्मक भावेंद्रिय कहते हैं. यह ज्ञान होकर भी रागद्वेषसे भित्र रहना इसको भावेंद्रिय विवेक कहते हैं. रागद्वेषसे युक्त ऐसी रूपादि विषयमें मानसिक ज्ञानकी परिणति न होना अर्थात् रूपादिकोंका ज्ञान होकर भी मन रूपादि विषयोंमें रागरूप अथवा द्वेपरूप परिणत न होना यह भी भावेंद्रिय विवेक हैं. द्रव्यतः कपाय विवेकके शरीरसे और वचनसे दो भेद होते हैं. भौहें संकुचित करना, नेत्र लाल होना, ओष्ठदंश करना, शस्त्र हाथमें लेना, इत्यादि शरीरकी प्रवृत्ति न होना कायचित्रक होता है.
मैं मारूंगा, ठोकूगा, शूल पर चढाऊंगा इत्यादि बचनोंका प्रयोग न करना यह वचन विवेक है. दूसरोंका पराभव करना, वगैरह के द्वेपपूर्वक विचार मनमें न लाना यह भावक्रोधविवेक है,
मानकपायविवक भी वचन और शरीरके निमित्तसे दो प्रकारका है. शरीरके अवयव ताठ करना, मस्तकको ऊंचा करना, उच्चासन पर चढना वगैरह कृत्य मानसूचक है. शरीरके द्वारा ऐसी क्रिया न करना. मेरसे
FATHERDESTROYSTER4002010