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________________ वाराधना आघासः ४७७ जिसमें बहुत जल सृष्टि होती है ऐसा क्षेत्र जिसको अनूप कहते हैं, जिसमें अल्प घृष्टि होती है और जिसमें नदी के पानीसे खेती होती है ऐसे क्षेत्रको जांगल कहते हैं, जिसमें अनूप और जांगलके लक्षण मिलते हैं ऐसे देशको साधारण क्षेत्र कहते है. कालके शीतकाल, वर्षाकाल और उष्णकाल ऐसे भेद होते हैं. धातु-अपनी शरीरप्रकृति, अर्थात् देश, काल, अपनी शरीरकी प्रकृति इनका विचार कर वात, पित्त और श्लेष्मका श्रोभ न होगा इम रीतीने तप करके क्षपकने शरीरसल्लेखना करनी चाहिये. शरीरसल्लेखनाकममभिधायाभ्यतरमलेखनाक्रममभिधान अभ्यंतरसम्बनया सह संबंध कथयति एवं सरीरसल्लेहणाविहिं बहुबिहा वि फासेंतो ॥ अझवसाणविसुद्धिं खणमवि स्ववओ ण मुंचेज ॥ २५६ ॥ इत्थं सलेखनामाग कुर्वाणेनाप्यनेकधा ।। नैव त्याज्यात्मसंशद्धिः क्षपण पटायसा ॥ २०७।। विजयोदया-पवमुक्तन क्रमेण । शरीरसलेहणाविहि नानाप्रकारं । फासतो वि स्पृशन्नपि । अउझबसाणविसुदि परिणामविशुद्धिं । पबगो खणमधि ण मुंचेन्ज शपकः क्षणमपि न त्यजेत् । एवं कायसल्लेखनाक्रममभिधाय कषायसल्लेखनामभिधातुकामस्तया सह तस्याः संबंध नित्यविधातव्यतयाभिवत्ते-- मूलारा—फासेन्तो स्पृशन्नपि । अपि शब्दो भिन्नक्रमो योज्यः । अझवताणविसुद्धिं शुद्धचिद्विवतपरिणति ॥ यहांतक शरीरसल्लेखनाका क्रम आचार्य महाराजने कहा है. अब अभ्यंतर सल्लेखना-कपायसल्लेखनाका संबंध करते हैं. प्रथम कपायसल्लखनाके साथ शरीरसल्लेखनाको दिखाते हैं अर्थ- क्रमसे नाना प्रकारकी शरीरसल्लेखना करता हुआ भी क्षपक मुनि अपने परिणामोंकी निर्मलताको एक क्षण भी न छोडे, तात्पर्य यह है कि, क्षपक शरीरसल्लेखनाके तरफ जितना ध्यान देता है उतना ही कषायसल्लेखनाके तरफ भी देवे. यदि परिणामों में मलिनता उत्पन्न होगी तो शरीरसल्लेखना करना व्यर्थ होगा. इसलिये परिणामकी विशुद्धि भी क्षपकको रखनी पड़ती है, ४७.
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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