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________________ मूलाराधना आबास ४७८ अभ्यंतरशुद्ध्यभाये दोषं कथयति अज्झवसाणावसुए वज्जिदा जे तवं विगटुंपि ।। कुव्वति बहिल्लरसा ण हाइ सा केवला सुद्धी ।। २५७ ।। भावशुद्धया विनोत्कृष्टमपि ये कुर्वते तपः॥ पहिलेश्या न सा तेषां शुद्धिर्भवति केवला ॥ २५८ ।। विजयोदया-अजायसाणविसुद्धीप वज्जिया अध्यक्षसानविशुझ्या वर्जिताः । जे ये । तषं तपः। बिकपि उत्कृष्टमपि कुर्वन्ति । दहिल्लेस्सा बहिर्लेश्याः पूजासस्काराद्याहितचित्तवृत्तयः । ण होदि तेसिं केषला सुखी दोषोन्मि श्रका भवतीति शुद्धिरिति यावत् । अभ्यंतरशुद्धधभावे दोषमाह-- मृसारा-विकटुं पि उत्कृष्टभापे । वाहिल्लेसा पूजासत्कारामाहतचित्तवृत्तयः । केवला अशुभकर्मास्रवणरहिता 1 सुद्धा अशुभकर्मनिर्जरा ॥ अभ्यंतर शुद्धि न होनेसे दोष उत्पन्न होता है ऐसा कथन -- अर्थ--जिनके परिणामी निर्मलता नहीं है वे साधु यद्यपि उत्कृष्ट तप करते हैं तो भी पूजा, आदर, कीर्ति इनकी इच्छासे वे तप करते हैं ऐसा समझना चाहिये. इसलिये उनके परिणामाकी शुद्धि नहीं होती, अर्थात् उनके परिणामोंकी शुद्धि दोपसहित है ऐसा समझना. जब पूजा, आदर इत्यादिकी अभिलापा छोडकर मुनि उत्कृष्ट तप करते हैं तब उनके परिणामों में निर्मलता वृद्धिंगत होती है.. केवला शुद्धिः कस्य तहि भवतीत्याद अविगहुँ पि तव जो करेइ सुविसुद्धसुकलेस्साओ। अज्झबसाणविसुडो सो पावदि केवला सुर्हि ॥ २५८ ॥ विजयोदया-अधिकट्ट यि अनुत्कृष्टमरि तपो यः करोति । सुबिशुद्धशुल्लालेश्यासमन्वितः विशुद्धपरिणामः स | केवल शुद्धि प्राप्नोति इति गाथार्थः ।
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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