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________________ मूलाराधना भावामः तपासूद्योगः सर्वप्रयत्लेन त्यकालस्यैर्भवद्भिः कर्तव्य इत्युपविशति-- तित्थयरो चदुणाणी सुरमहिदो सिज्झिदव्ययधुवम्मि ॥ अणिगृहिदवलविरिओ तबोविधाणम्मि उज्जमदि ॥ ३०२॥ নিরিনিদলাপাহানি। अनिगुह्य उलं वीर्यमुद्यतःसने तपः ।। ३०० ।। विजयोक्या-निन्थयगे नीकरः नरनि मया येन भवाम्गनाय । कैयन नचिनेन गाधरेवलिंगनमनपनि श्रुत मण धरावा तीर्थमित्युच्यते । बदुनयकरणातीर्थकारः । अथवा 'निनु विदिशा ' इति प्यपत्ता नार्थशब्देन मागों रत्नयामकः उच्यते तत्करणातीर्थकरो भवति। चउणाणी मतिधतायधिमनःपयशानयान । समयहिदो सुरेधातुःप्रकारः पूजितः स्वर्गायतरणजन्माभिषेकपरिनिाक्रमणेषु । मिझिदयगध्रुम्मि नियोगमाधियां सिदागि। तथापि अणिमूहियबलविरिओ भनुपन्हुतबलवीर्यः । तवोत्रिहाणम्मि तपःसमानाने उजदि उयोगं करोति । तपस्युद्योगः सर्वप्रयत्नेन कर्तव्यः इत्युदेष्टुं गायाष्टाविंशति आचष्टे - मूलारा---मिज्मवययधुवम्मि अवश्यंभाबिन्यामपि सिद्धौं मयाम । आलस्य छोडकर सर्व प्रयत्नगे तपश्चरणमें तुम उद्योग करो ऐसा आचार्य उपदेश करते हैं. अर्थ-मनि, श्रुत्ति, अवधि और मनःपर्यय ऐन चार ज्ञानाक धारकः स्वगावतरण, जन्माभिषेक और दीक्षाकल्याणादिकोंमें चतुर्णिकाय देवासे जो पूजे गये हैं, जिनको नियममे मोक्षप्राप्ति होती है, ऐसे तीर्थकर भी अपना पल और वीर्य नहीं छिपात है और तपमें उद्युक्त होते ही हैं इसलिये तुमको भी तपमें उद्योग करना आवश्यक है, जिसका आश्रय लेकर भव्यजीव संसारसे तीरकर मुक्तिको प्राप्त होते हैं उसको तीर्थ कहते हैं, कितनेक भव्य जीव श्रुतसे अथवा गणधर की सहायतासे संसारसे उत्तीर्ण होते हैं, इसलिये श्रुत और गणधरको तीर्थ कहते है. श्रुत और गणधरको भी जो कारण हैं उनको नीर्थकर कहते हैं. अथवा 'तिमु तिदिति नित्थं' ऐसी भी तीर्थ दान्द्रकी व्युत्पत्ति है. सनत्रयात्मक मोक्षमार्गको नीर्थ कहने हैं, उसको जो प्रचलित करते हैं उनको तीर्थकर कहते हैं ऐसे तीर्थकर भी यदि नप करते हैं तो अन्य नि भी क्यों न करें ? ।
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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