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________________ मूलाराधना ५१५ उद्युक्त रहूं" हे मुनिद! तुम हमेशा त्रलोक्य में महान ऐसे सर्वज्ञ कथित आगम में प्रेम करो. ------- दुस्सहपरीसहहिं य गामवचीकंटएहि तिक्खेहिं || अभिभूदा विहु संता मा धम्मधुरं पमुच्चेह ॥ ३०१ ॥ मास्म घरं त्याक्षुरभिभूताः परीपदैः ॥ दुस्सहै| कंटकैस्तीक्ष्णग्रयिकवचोमयैः ॥ २५९ ॥ विजयोदया-दुस्सहपरीसदेर्ति य दुःसहै। परिषद्वेध | गामवचीमहि तिस्खेहिं अकोशवचनकंटकेस्ती | अभिभूदा चि य संता पराभूता अपि संतः । मा मधुरं मुच्चेह मा कृथा धर्मभारत्यागं । ननु च 'दुस्सहपरीसय अभिभृता मा धम्मधुरं मुखेड इत्यनेनैव आकोशपरीसह उपदिष्टं ? किमनेन गामबचीकेट ' स्यनेन ? | अयमभिप्रायः सूत्रकारस्य सोढवादिवेदनोऽपि न सहतेऽनिएं यचगोऽतिदुष्करमपि रात्सोव्यं इति दर्शनाय पृथगुपनम् । महारा- गाम्रवचीटो माम्याणामविविकजनानां वचनानि एवं कंटकाक्रोश चनैरित्यर्थः सोदक्षुदादिवेदनोऽपि हि नानिष्टं वचनं शक्नोति इति अनिदुःसहादाकोशवचनस्य प्रथगुपादानं अतिमहाको शवचनं भवद्भिः सोडव्यमित्युपदेशार्थं । अर्थ - दुःसह क्षुधादिक परीपहाँसे और ग्राम्यलोगोके तीक्ष्ण गालिबचनों से पीडित होते हुए भी दे गण ! आप धर्मभारका त्याग कदापि न करे. 'दुःसह परीपोंसे पीडित हो कर आप धर्मभार का त्याग न करो' वचनों हि आक्रोशपरिपह सहनका अन्तर्भाव होता है तो भी ग्राम्यतीक्ष्ण वचनाको सहन करनेका उपदेश क्यों किया है ? इस प्रश्नका उत्तर ऐसा है क्षुधादिवेदनायें सही भी जाती हैं परंतु अने वचन सहा जाया नहीं. अतिदुःसह अनिष्ट वचन भी मुनिगण को सहना चाहिये यह दिखानेका आचार्यका अभिप्राय था इसलिये 'गामी तिक्खहिं' ऐसा प्रथ वचन दिया है. आषासः ४ ५१५
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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