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आश्वामः
मूलाराधना
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रीतीसे गमन करना, मिथ्यात्वमें और असंघममें जावाकी प्रवृति जिसस होगी एसा वचन बोलना, साक्षात् अथवा परम्परास जीवोंको बाधा देना, भोजन करना, कोईभी वस विना देये, बिना पोट, जमीनपरसे लेना और रखना, जमीनकी देखभाल किये बिना उसपर हगना. मृतना, बगर क्रिया करना. ये क्रियाय जीत्रपडिाका कारण है. इनका त्याग करनसे चारित्र विनय होता है. अगम क्रियाओंका त्याग करना यह चारित्रका लक्षण है. परंतु जो आरंभ क्रिया करते हैं वे चारित्र धारण नहीं कर सकते हैं. इस लिय हे मुनिचंद : आप चारित्रमें नित्य उद्योग
अनशन, अवमोदर्य वगैरह तपास उत्पन्न होनेवाले परिश्रमोंको सहन करना यह तपोविनय है. सदि तप करत गमय आत्मामें संक्श परिणाम उत्पन्न होग नो कमौका महान आग्यच होगा और निर्जरा अल्प होगी उपचारविनय धारण करनेसे विद्वान लोक यह मान विनयशील है एमा समझकर पृषा करते हैं. यदि उपचार विनय निम न हो तो वह निदाका पात्र होना है. मानसिक उपचार विनय, चाचनिय पर विनय और कायिक उपचार विनय ऐम उपचार विनयक भेद है. इन विनयोंको जो मुनि धारण नहीं करना है. गुरुआकी मनम अबहलना करता है। गुरु आनेपर ऊठकर खडा होता नहीं वे जानेपर उनके पीछ जावा नहीं हात जोडता नहीं, उनकी स्तुति और विज्ञप्ति करता नहीं, गुरुक सम्मुख आसनपर चढकर बैठता है, उनके आगाम है. उनकी निंदा करता है और उनको कठोर दाद बोलना है, गालि देता है उसको नीचगोत्रका बंध होता है. इस कमके उदयसे वह मातग, चांडाल, धीवरादि निध नीच कुलोंमें जन्म लेता है. कुत्ता, सूकर, बगरह पशुआमें यह उत्पन्न होता है. जिंदा करनेवाले मुनिओं को गुरुस रत्ननयका लाभ होना नहीं. परंतु जो मुनि नम्रम्पभाना गुरु उसको प्रयन्नसे पढाते है और उसका आदर काते हैं. इसलिये हे मुनिगण ! आप बिनयम नित्य तत्पर रखी. अविनय दीपसे भरा हुआ हे और विनय में बई गुण निवास करते है ऐसा समझकर तुम स्वाध्यायमें अनुरक्त रहो. शोभन अध्ययनको स्वाध्याय कहते हैं. जीवादि तत्वोंका स्वरूप समझलेगा और उसका वर्णन करनेवाले पंचने पहना यह शोभन - उत्तम स्वाध्याय है. इसमें तुम हमेशा तत्पर रहो. सोना, हसना, खेलना, आलस्य, लोक व्यवहार इन बातोंको छोडकर तुम स्वाध्याय करो. पूर्वाचार्य इस विषयमें ऐसा करते हैं. 'मैं निद्रा को अच्छी नहीं मानता हूं. मैं हास्य और क्रीडा का त्याग करता हूं. मैं आलस्य छोडकर मुनिधमकी, योग्य क्रियाओंमें हमेशा
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