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मूलाराधना
आश्वासः
जीवद्रव्य नियमेन श्रद्धेयं तदनद्धाने मुक्तिमस्मृतिनामित्यागार्थप्रयासानुपपत्तेरित्यनुशासितुमाह
समावण्णा-प्राप्ताः शोभनाशोभनशरीरमहणमोचनाभ्धताः । छविड़ा पृथिव्याजोवायुबनस्पतिग्रसकायिक मेदान् । अम्सिदा आश्रिताः। शिकाया निकायाः समूहाः । आयाए आप्तानामामात्रछात् । यद्यपि च ज्ञानावरणोदया द्वर्मादरज्ञाने सति तमद्धानं नोत्पाते तथापि नासौ मिश्याष्ट्रिदर्शनमाहोदयजन्यस्य अश्रद्धानस्य ज्ञातव्यश्रद्धयविषय स्याभावात् । न हि श्रद्धानस्यानुत्पत्सिरश्रद्धानं किं तर्हि ? श्रद्धानादन्यदिवमित्यमिति श्रुतनिरूपितेऽर्थे रुचिः ।
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जीवद्रव्यके उपर नियमसे श्रद्धान करना चाहिये इसके विवेचनके लिये उत्तर गाथा आचार्य कहते हैं
हिंदी अर्थ-इस जगत में चार गतिमें भ्रमण करनेवाले जीवोंके छह प्रकार हैं. पृथिवी, हवा, पानी, अग्नि, बनस्पति ये पांच स्थावर काय जीव हैं. दीन्द्रियादि जीयोको त्रसकाप जीव कहते हैं, ऐसे छह भेद संसारी जीवके हैं, जिन्होंने झानावणादि आट कमका नाश करकं मुक्ति प्राप्त की है वे जीव सिद्ध है. जिनधरकी भाज्ञा इम जीवनिकायपर श्रद्धा करनी चाहिये.
विशेषार्थ—पदकायके जीव संगारमें चार गतियों में भ्रमण कर रहे हैं. उनको शुभाशुभ कर्मके उदयम शुभाशुभ शरीर मिलते हैं तथा नट होते हैं. कभी कभी स्वतःके मनोयोग, वचनयोग और काययोगसे पुण्य कर्मबंध हो गया तो उनको सुख मिलता है. और यदि पापबंध हुवा तो दुःखानुभवमें उनको प्राप्तपर्याय खतम करनी पड़ती है. सकर्मके उदयसे हीन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रियतकके प्राणिोंमें उनका जन्म होता है, और स्थावरकर्मके उदयमे वे पृथिवी, हवा वगैरह प्राणिोंमें जन्म धारण करते हैं, विचित्र मतिज्ञानावरणके उदयसे
और उसके क्षयोपशमविशेषम उनको एकन्द्रिय, विकलेंद्रिय और पंचेन्द्रियावस्था प्राप्त होती है, पर्याप्ति नाम कर्मके उदयमे यथायोग्य चार, पांच और इलाह पर्याप्ति प्राप्त होती हैं. यदि अपर्याप्ति नाम कर्मका उदय आवे तो अपर्याप्त बनते हैं. पृथिच्यादि शरीराको धारण करनेमें ये सब संसारी जीव चतुर हैं. आयुनाम कर्मरूप चटीमे जखड जानेसे पराधीन हो गये है. सचित्तयोनि इत्यादि नउ योनियोंसे उत्पन्न हुए शरीरमें इनकी मति आसक्त हो गई है. जरा- वृद्धावस्थारूप ढाकिनी इनका रूप और रक्त पीनेमें चतुर रहती है, मृत्युरूपी अनिवारणीय बज्रपातसे