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________________ मूलाराधना इनका चित्त भययुक्त हो जाता है. एमे ये संसारी जीव पृथिवी, हवा, इत्यादि रूपसे छह प्रकारके है. जिनको सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान, केवलदर्जन, अनंतशक्ति, अन्यावाधता, सूक्ष्मता, अवगाहन, अगुरुलधुता ऐसे आठगुणोंकी प्राप्तिरूपी मुक्ति पाप्त हो गई है वे सिद्ध जीव हैं. - शंका-जीव धातूका अर्थ प्राणधारण करना है, 'जीवति प्राणान्धीपति इति जीवः ' अर्थात् जो इंद्रियादि प्राणोंको धारण करता है वह जीव है ऐसी जीव शब्दकी निरुक्ति है. इद्रियादिक प्राणाकी उत्पत्ति कर्मसे होती है. परंतु सिद्धाको कर्म नहीं है अतः सिद्धोमें जीयत्व कैसा मानोगे ? उत्तर-द्रव्य प्राय और भाव प्राण ऐसे प्राणों के दो भेद है. इंद्रियां, आयु श्वासोच्छास और काय वल, मनोबल और वचनबल पे द्रव्यप्राण हैं, ज्ञानदर्शन वगैरह भावप्राण है द्रव्यप्राण कमसे उत्पन्न होते हैं. बैं भावप्राण कमसे उत्पत्व नहीं होते हैं. कार अभाव होनेपर उनका हा होता है. सिद्धोंको भाचप्राण हैं अतः वे जीव है यह सिद्ध हो चुका. अथवा जिन्होंने संसारावस्थामें द्रव्यप्राण धारण किये थे वेही अब सिद्ध बने हैं ऐसे प्रत्यभिज्ञानसे उनमें एकत्वसिद्धि होती है इस लिये एकत्वके आश्रयसे हम सिद्धोंको भी जीव कह सकते है. || अथवा जीव शब्दकी चेतनावान प्राणीमें रूढी है, अर्थात् जीव यह शब्द रूढि शब्द है. रूट शब्दमें क्रिया व्युत्पत्तीके लिये ही होती है. इस लिये वह क्रिया वहां नहीं भी हो तो भी उपलक्षणसे ग्रहण किये हुए सामान्यके आश्रयसे उस शब्दकी प्रवृत्ति होती है. जैस 'गछत्तीति गौः' इस निरुक्तिसे घनाया हुबा भी मोशन्द गमन त्रिया न होनेपर भी अर्थात् बैठी हुई वा खडी हुई गौमें भी प्रवृत्त होता है. क्योंकि अनित्यगमनक्रियासे युक्त गीत्वका गौमें सद्भाव है और गोशब्द उपलक्षणसे गोत्वका वाचक होता है, उसी तरह प्रकृत विषयमें माण धारणासे उपलक्षित चैतन्यके आश्रयसे जीव शब्दकी सिद्धोंमें प्रवृत्ति होती है, संसारी और मुक्त ऐसे जीवसमूहोंपर जिनाशासे श्रद्धा करनी चाहिये ऐसा इसका अभिप्राय है. जीवके विषयमें यदि श्रद्धा नहीं हो तो मुक्तिके साधनभूत रत्नत्रयकी प्राप्ति करना और संसारवर्धक मिथ्यात्वादि कारणोंका त्याग करना यह सब प्रयासमात्रही होगा. यद्यपि धर्मादि द्रव्योंका ज्ञान न होनेसे ज्ञानके साथ होनेवाली श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई तो भी वह सम्यग्दृष्टिही है, मिथ्यादृष्टि नहीं है. क्योंकि दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे उत्पन्न दुवा जो अश्रद्धान जो कि अन्नानको विषय करता है वह यहां नहीं है. मिथ्यादर्शनसे उत्पन्न हुआ जो अश्रद्वान वह अरुचि रूप है अर्थात् SOMAN
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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