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________________ मलाराधना সম্পন্ন म जीवाण णथि कोई ताणं सरणं च जो हवेज इधं ॥ पायालमदिगदो वि य ण मुच्चदि सकम्मउदयम्मि ।। १७६५ ।। न कोऽपि धियते नाणं वेहिनो भुवनम्रये ॥ म प्रविष्टोऽपि पातालं मुच्यते कर्मणा जनः ॥ १८०२।। बिज़योदया सीमणीयमा नाटिकद्रामाशा या । जो बचेगा यो भवेत् । पावालमदिगो वि पाताले प्रविष्टोपि । ण मुच्चादि । न मुच्यते दुःखात् । सम्मउदयदि स्वकर्मोदये सति ॥ मूलारा-साणे रक्षा । सरणं आश्रयः। इधं अस्मिन । मुच्या मुच्यते । लोके । अवि य अपि च । एतेन दुर्गमक्षेत्रलमधेयथ्य समर्थयते । ण मुञ्चदिन विछिपते जात्याक्षिकाद्दुःखात ।। अर्थ-माणिओंको जगतमें कोई भी शरण नहीं है. यह जीव फर्मसे पिंड छडानेके लिये पातालमें पला जाय तो वहां भी यह कर्म उसको छोडता नहीं, जबतक यह जीव स्वकर्मदरसे बसम नहीं होगा तब तक इसका दुःख से छुटकारा नहीं होगा. 1858400 गिरिकंदरं च अडवि सेल भूमि च उदधि लोग त ।। अदिगंतूर्ण वि जीवो ण मुञ्चदि उदिण्णकामेण ॥ १७३६॥ नगदुर्गे क्षिती शैले लोकांने काननेऽम्भुधी । गनोऽपि कर्मणा जीवो नोदीर्णन विमुच्यते ॥ १८०३ ।। विजयोदया-गिरिदरं च गिरिकंदर अटवी शैलभूमिमुदधि । लोकांतं प्रविश्यापि जीचो मुच्यते । उव. थागतन कर्मणा ॥ __ भूयोऽपि क्षेत्रलब्धि प्रबंधन निरस्करोति -. मूलारा-गिरिकंदरं पर्वतपानीयविदारितस्थानं । अदिगंतूण वि गत्या पि तिष्ठन् । अर्थ-पर्वतकी दरीमें, जंगलमें, पर्वतमें, जमीनमें, समुद्र में इतना ही नहीं लोकके अंतमें भी जीव यदि जाकर वसेगा तो भी उदयमें आये हुए कमसे बद्द छुटकारा नहीं पाता है.
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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