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यूलारावना
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एकतोपसंहारमाह-
मुहारा - चरिमवेलाए प्रत्यासन्नमरणक्षणे । सिदंडपरिमोठ्या अशुभमनोवाक्कायनिर्मूलकाः साधवः ॥
अर्थ - संस्तर में पडे हुए क्षपकका मरणकाल जब निकट आचुका है तो ऐसे समय में अर्थात् अन्तसमय में अशुभ मनोविचार, अशुभ शरीर प्रवृत्ति और अनुभवचन इनका त्याग करनेवाले गणधरादि मुनि संबैजनी, निवेजनी और आक्षेपणी ऐसी तीन कथाओंकाही वर्णन करते हैं. विक्षेपणी कथा समाधिमरणके लिये आधाररूप नहीं है. इसलिये उसका निरूपण करते नहीं.
जुत्तस्स तबधुराए अब्भुज्जदमरणवेणुसी संमि ॥
तह ते कहेंति धीरा जह सो आराहओ होदि ॥ ६६१ ||
तपोभावनियुक्तस्य मृत्यासज्जतयेति तम् ॥
से वदति तथा तस्य भवत्याराधको यथा ।। ६८७ ।।
विजयोदया - जुसस्स युतस्य तबधुराप तपोभारेण भम्भुज्जदमरणवेणुसीसम्म सभीपीभूतमरणवंशस्य शिरसि स्थितस्य क्षपकस्य । ते धीराः। तह तथा । कदेति कथयन्ति । जघ सो आराधमो होदि यथासामाराको भवति रम्नग्रस्य ॥
ते चत्वारो धर्मकथानियुक्ता यतयस्तथा कथयन्ति तथा रत्नयमाराधयत्येवेत्यभापयन्नात
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मूलरा - अब्भुज्जदेत्यादि । सभीपीभूतमरणवंशस्य शिरसि क्षपकस्य ||
अर्थ
- तपका भार जिसने धारण किया है. निकट प्राप्त हुए समाधिमरणरूपी बांसके अग्रभागपर जो ठहरा है ऐसे क्षपकको चार मुनि ऐसाही उपदेश देते हैं कि जिसको सुनकर वह रत्नत्रयका आराधक होगा.
चचारि जणा भतं उबकप्पैति अगिलाए पाओग्गं ॥ छंद्रियमवगददोसं अमाइणो लडिसंपण्णा || ६६२ ॥ तस्यानयंति चत्वारो योग्यमाहारमश्रमाः ॥ निर्माना लब्धसंपन्नास्तदिष्टं गतदूषणं ॥ ६८८ ।।
आश्वासः
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