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मूलाराधना
आश्वासः
होती है तब रागविकार पैदा होता है. अनिष्टरूपादि विषयासें उप उत्पन्न होता है. इष्टानिष्ट पदार्थ समीप होनेपर भी यदि उनके तरफ इंद्रियोंका उपयोग न लगेगा तो वे पदार्थ केवल अपने अस्तित्वमात्रसे जीवमें रागद्वेष उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होते हैं. जिस समय आस्माका दूसरे तरफ मन चल जाता है अथवा यह सोता है उस समय इंद्रिय विषय समीप होनेपर भी रागद्वेष उत्पन्न नहीं होते हैं.
शंका-निष्ठास्ययास शब्दके साथ जब समास होना है तब वह शब्द समासमें प्रथम प्रयुक्त होता है अतः ' मंचनपंचेंद्रिय ' एसा समस्त शब्द बनेगा. ' पंचेंद्रियसंवृतः ' यह समास योग्य नहीं है,
उनर--'जातिकालसुखादिभ्यः परवचनम् ' इस सूत्रमे पंचेंद्रिय शब्द जातिवाचक होनसे समास करते समय प्रारंभ में पंचेंद्रिय शब्दका प्रयोग किया है. अनंनर निष्ठाप्रत्ययांत संवृत शब्द जोर देनेस' पंचेन्द्रिय मंचनः एमा समस्त शब्द हुआ है. इन्द्रियशब्द जातिवाचक है. इंद्रियके द्रव्येद्रिय और भावेंद्रिय पसे दो भेद हैं. रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द ये इन्द्रियोंके विषय हैं. अपने अपने विषयोंक नरफ उपयोग लगना यह भावन्द्रिय है, स्वाध्याय करनेसे इंद्रियानरोध होता है और इंद्रियनिराधसे रागादिक विकार उत्पन्न नहीं होते हैं.
चतुगति में भ्रमण करनेवाले इस जीवको देह प्राप्त होता है. देहकी प्राप्ति होनेसे इंद्रियां उत्पन्न होती है. वे अपने अपने विषयको ग्रहण करती हैं, अतः विषयग्रहणसे रागद्वेष उत्पन्न होते हैं.
जो मुनि ज्ञानविनयपूर्वक स्वाध्याय करता है वह त्रिगुप्तिधारक होता है अर्थात् उसका मन अप्रशस्त रागद्वेयादिकोंसे आलिप्त रहता है. उसके मुखसे असत्य, रूक्ष, कठोर, कर्कश, स्वस्तुतिपर और परदूषणात्मक वाणी बाहर आती नहीं. हिंसादि कार्यों में उसका देह प्रवृति करता नहीं, इस रीतिमे त्रिगुप्ति धारक वह मुनि एक विषयक तरफ अपने मनको स्थिर करके ध्यानमें तत्पर हो जाता है. स्वाध्याय करनेसे श्रुतज्ञानमें परिचय होता है, जब श्रुतज्ञानकं साथ यतीका परिचय होता है तब धर्मध्यान और शुक्लध्यानकी प्राप्ति होती है. अपायविचय, उपायविचय, भवविचय, लोकविचय, विपाकविचय वगैरह धर्मध्यानके भेदोंका ज्ञान जिनवचनके सामर्थ्यसे होता है. आगममें 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः' अर्थात् चौदह पूर्वाका श्रुतज्ञान जिसको है ऐसे मुनिराजको धमध्यान और शुक्लध्यानकी माप्ति होती है ऐसा कहा है.
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