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मूलाराधना
आश्वा
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गुरुके उपदेशके अनुमार हमको प्रवृत्ति करनी चाहिये ऐसा समझकर सुजलोक उसके पास जाते हैं. यदि गुरुके विशिष्ट गुणोंका पौरज्ञान न हो तो उसके अनुयायी कैसे होंगे, और गुरुभी परानुग्रह कैसा कर सकेगा. इसवास्ते गुरूको स्वपरानुग्रह करना चाहिय. क्यों कि 'आत्महित करना चाहिये और शक्य हो तो परहितभी करना चाहिये, इस उक्ति में यद्यपि आत्महितकी मुख्यता दिखाई है तोभी 'श्रयोर्थिना हि जिनशासनवत्सलन कर्तव्य एच नियेमन हितोपदेशः' अर्थात जिसको मोक्षकी इच्छा है, जो जिनधर्म पर प्रेम रखता है उसको हितोपदेश करना अवश्य कर्तव्य है. जैसे वैद्य रोगीको ओषध देकर उसको नीरोग करता है. उसका नीरोग करना जैसा कर्तव्य है वैसा गुरुओंका परहितके लिये उपदेश देना कर्तव्य है. ..
अथवा अपनी और दुसरोंकी आत्मशुद्धि करनेके लिये परसाक्षिक ही आत्मशुद्धि करनी योग्य है. क्यों कि मेरी शुद्धि देखकर दूसरेमी आत्मशुद्धिका क्रम ऐसा ही है ऐसा समझकर परसाक्षिक शुद्धि करनेके लिये प्रयत्न करेंगे अन्यथा सर्व लोक स्वसाक्षिसेही शुद्धि करेंगे. ऐसे करनेसे वे शुद्ध नहीं होंगे, लोकप्रायः मतानुतिक होते है. यस्मात्परसाक्षिका शुद्धिः प्रधाना- .
तम्हा पव्यज्जादी दंसणणाणचरणादिचारो जो ॥ तं सव्वं आलोचेहि गिरवसेसं पणिहिदप्पा ॥ ५३० ॥ सतः सम्यक्त्वचारित्रज्ञानदूषणमादितः।।
एकाग्रमानसः सर्व स्वमालोचय यत्नतः ॥ ५५० ॥ विजयोदया-तम्हा तस्मानप्रवज्यादिकं । देसणणाणचरणादिचारो जो दर्शनशानचरणातिबारो यः । ते सञ्चसर्य प्रतिचारं आलोचे हि कथय । पणिहिदप्या प्रपिहितचित्तो भूत्वा । निरपसेर्स सर्वमित्यनेनेवायगतत्वात् निरवशे पमिन्यात किमर्थ इति चेत । शानदर्शनचत्रिविषाणामतिमाराणा कतिपयानां मामयेऽगि सशस्य प्रसिर रतीति निरचापग्रह प्रत्यक नातिचारान् ग्रहीतमुपभ्यस्तमिप्ति तन दोगः ॥
मूलारा -- पव्यजादी दीक्षा ग्रहण दिनात्प्रभृति । शिरयसेसं सूक्ष्मस्थूलभेदप्रभेद महितम् । परसाक्षिक शुद्धि ही मुख्य है अतः तूं आलोचना कर ऐसा अभिप्राय आगकी गाथा कहती हैअर्थ- इस लिये दीक्षाकालसे आजतक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इनमें जो जो अतिचार