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मलाराधना
आश्वासः
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भूवरूपग्रहणे भूतरूपनिराकरणे च प्रवृत्तं मनस्ताभ्यो व्यावर्तयितुं न शक्यते रागादिसहचारित्वादिति भावः । गिरिसरिदसोदंव्व पर्वतनदीप्रवाह इव ।
अर्थ-अंधा, बहिरा और गूगके समान दुष्ट मनका स्वभाव है, किसी समयमें किसी प्रकारसे व किसी विषयमें आसक्त हुआ मन समीपस्थित भी दुसरे विषयको देखता नहीं है, सुनता नहीं और बोलता भी नहीं है.
शंका-देखना, सुनना और बोलना इस क्रियाका कर्तृत्व नेत्र, कर्ण और जिह्वाके तरफ है. मन तो इन क्रियाओंका कर्ता नहीं है. वह सर्वदा भी किसी विषयको देखता नहीं है, सुनता नहीं है. और बोलता भी नहीं है.
उत्तर-मन यद्यपि करण है तो भी उसमें कर्दताका आरोप किया है जैसे 'परशुश्च्छिनत्ति' कुन्हाट लकडी काटती है. यहां कुन्हाड छेदन क्रिया करने में देवदत्तको सहाय करती है अतः करण है. तोभी उसके तीक्ष्ण तादि गुणोंकी प्रशंसामें उसको कई पद मिला है. चैसे मनमें पदार्थोंको जाननेकी उत्कटता होनेसे इतर इंद्रियोंको उनके विषयमें वह सहाय्यता देता है तो भी उसमें कर्तृत्वका अध्यारोपण किया जाता है. अभिप्राय यह हैकि जीवादिक पदार्थ अवलोकनके योग्य है. जिनवचनादिक सुनने के योग्य है, स्वपराहेत करनेवाले वाक्य भी सुनने योग्य हैं परंतु इस मनकी उनमें कदाचित् प्रवृत्ति नहीं होती है, यह इसकी दुष्टता है, जैसे मालिकने किसी कार्यमें प्रेरा हुआ नोकर यदि उस कार्यको न करेगा तो उसको दुष्ट कहते हैं वसे मनभी आत्माने नियुक्त कार्य में प्रवृत्त नहीं होता है अनः वह दुष्ट कहां जाना है. किसी कार्यमें संलग्न हुआ तो भी वह वहां स्थिर न होकर वहांसे शीघ्र हटता है अर्थात् वस्तुका यथार्थ स्वरूप ग्रहण करता हुआ भी उससे जल्दी हटता है. यह मन वस्तुका जो सत्य स्वरूप है उसको ग्रहण न कर असद्रूपको ग्रहण करता हैं, उसमेंसे उसको हटाना अतीव कष्टकर कार्य है अर्थात् मनको सदूषके ग्रहण कराने में असद्रूपसे हटाने में कोई प्रयत्न करेगा तो उसको बड़ा कष्ट होगा. जैसे पर्वतपरमे बहनेवाली नदीका प्रवाह हटाना अर्ताय दुष्कर है वैसे मन भी रागद्वेषादि विकारोंमे युक्त होनेपर उसको असन से हटाकर सत्र में प्रवृत्त करना बडा कठिन कार्य है.
तत्तो दुखे पंथे पाडेदुं दुदओ जहा अस्सो । बीलणमच्छोव्व मणो णिग्धेत्तुं दुकरो धाणिदं ॥ १३६ ॥