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________________ कान १४२ ज्ञानं, असंयमः कषायाः अशुभयोगत्रयं चन्यमी परिणामाः । मियादर्शनानिकान्तं किं सम्यदर्शनं । मिथ्याज्ञानाभिष्यां सम्यग्ज्ञानम् । असंयमात्कपायेभ्योऽशुभयोगत्रयाश्च निष्क्रान्तं सुचारिषं तेन तत्त्रयमिह नित्र्यशब्देन भण्यते । प प्रवचनस्येदं अभिधेयं । मेव इदमेव अणुसरं न विद्यते उत्तरं उत्कृष्टमस्मादिति अनुत्तरम् । सुपरिशुद्धं सुष्ठु परिशुद्धं । णमेव इदमेष | मोस्वमग्गोत्ति कर्मणां निरवशेशपायस्थोपाय इति । मदी बुद्धिः कार्यान्विया कर्तव्या । तम्हा तस्मात् यस्मादेवंभूतायामस्य दुःखी विषयति का भविष्यतीति । भगवन्यद्येवं तर्हि संसारभीरुणानेन कीदृशी मतिः कर्तव्येत्यत्राह - मूलारा-निमांथमित्यादि--प्रधनंति रचति दीर्घीकुर्वन्ति संसारमिति अंथा मिध्यादर्शनादयः । तंत्र मिध्यादर्शना निष्क्रान्तं सम्यग्दर्शनं मिथ्याज्ञानात्सम्यग्ज्ञानं, असंयमकपायाशुभयोगेभ्यश्च सम्यक्क्षारि इति । रत्नत्रयमत्र निय शब्देनोच्यते ॥ पात्रयणं प्राचनं प्रवचनस्य जिनागमस्य अभिधेयं केवलिप्रशान्तमित्यर्थः । अन्ये तु निःसंगं प्रवचनमिति प्राधान्येन व्याचक्षते । इणमेव सुपरिसुद्धं इदमेव सुषु समन्तान्निर्दोष सत् । अनुत्तरं लोकोत्तमं । केवलिपण्णत्तो श्रम्मी लोगोमो, इति वचनात् । मदी मतिरभ्युपगमः । कान्विया कर्तव्या । तम्हा तस्मात् । यत एवंत्रिधां मि वता अनेन जीवेन दुःखेकमये भवार्णवे अनादिकालं भ्रान्तमिति भावः । संसारसे डरनेवाले मनुष्यको अपने मनमें कैसे विचार करने चाहिये इस प्रश्नका उत्तर आचार्य देते हैंहिंदी अर्थ - जो संसारको गूंथते हैं अर्थात् जो संसारकी रचना करते हैं, जो संसारको दीर्घकाल तक रहनेवाला करते हैं उनको ग्रंथ कहना चाहिये. मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान अनंयम, कपाय, अशुभ योगत्रय अर्थात् अशुभ मनोयोग, वचनयोग और काययोग इन परिणामको आचार्य ग्रंथ ऐसा नाम देते हैं. मिथ्या श्रद्धा जब हट जाती है तब सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है. मिथ्याज्ञान नष्ट हो जानेसे सम्यग्ज्ञान पैदा होता है. असंयम, कपाय और अशुभ तीन योग इनसे रहित जो चारित्र उसको सम्यक्चारित्र कहते हैं. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको अर्थात् रत्नत्रयको आचार्य निर्ग्रन्थ यहं संज्ञा देते हैं. यह निर्ग्रन्थ ही अर्थात् रत्नत्रय ही जगतमें सर्वोत्कृष्ट पदार्थ है. इससे भी उत्कृष्ट पदार्थ दूसरा कोई भी नहीं है. यह पदार्थ पूर्ण निर्दोष हैं. यही मोक्ष है. अर्थात् इससे ही संपूर्ण कर्मोंका नाश होगा. ऐसा मनमें सदा विचार करना चाहिये. इस तरहका विचार आश्वासः १५२
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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