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________________ काराधना आश्वास ९३५ रदिअरदिहरिसभयउस्सुगत्तदीणतणादिजुत्तो वि ॥ भोगपरिभरोगहेदं मा हि विचितेहि जीवबई || १७६१९ ॥ हर्षोत्सुकत्वदीनत्यरत्यरत्यादिसंयुतः॥ त्वं भोगपारंभोगार्थ मा कार्षी वयाधनम् ।। ८१ ।। विजयोदया- रदिअरदिहरिसभयउस्सुगनदीमत्ताणाविजुत्तोऽपि । शब्दादिविषया मोती रतिः । अमनोविषयसमिधाने या चिमुखता सा भरतिः । हास्यकर्मोदयनिमित्तः परिणामो हः । भय, उत्सुकता, दीनतेत्येवमादिभियुक्तोऽपि । भोगपरिमोगहेतु भोगोपभोगार्थ वा जीवषधं मा कृथा मनसि । अर्थ-स्पर्शादि विषयोंपर प्रेम होना बह रति है. अनिष्ट पदाथा समयोग होने पर जो विमुग्यता होती है उमको अति कहते हैं. हास्य कर्मके उदयसे उत्पन्न हुए परिणामोंको हप कहत है. मय, उत्सुकता, दीनपना इत्या दिक परिणाम आत्मामें उत्पन्न होने परभी भोगोपभोगके लिये हे क्षपक नूं जीवध करनेका विचार मन मत कर, PERATORS महकरिसमग्जियमहं व संजमो थोबथोवसंगलिय ।। तेलोक्कसव्वसारं णो वा पूरेहि मा जहसु ॥ ७८० ।। माक्षिकं मक्षिकाभिर्वा स्तोकस्तोकेन संचितं ॥ मा नीनशो जगत्सारं संयम न पूरयः ॥ ८११ ।। विजयोदया-माकरिसमनियम व मधुकरीभिः समर्जित मधिय । संजम बारित्रं । थोवधोषसंगलि स्तोकस्तोकेनोपचितं । तेलोकसट्वसारं त्रैलोक्यम्य सर्वसारं विष्टपत्रये यदतिशयरत् स्थान, मान, ऐश्वर्ष सुख वा तस्य कारणत्यात् भैलोक्यसर्वसारं । मा जासु मा स्याक्षीः॥ अर्थ-मधुमावखया जैसा थोडा थोहा मधु संचित करती है वैसा थोडा थोडा करके संचित किया हुआ यह संयम तू मत छोड़ क्योंकि त्रैलोक्यमें जो अतिशय उत्कृष्ट स्थान, मान, ऐश्वर्य और सुख है उसकी इससे प्राप्ति होती है, अतः ऐसे महान् संयम का हे क्षषक ' तू त्याग मत कर,
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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