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सुलाराधना १६१४
उदय आता है तब एक अग्नीसे निकल कर दुसरे अग्निमें पढनेवाला जीव जैसे घोर दुःखका अनुमच करता है वैसा इस जीवको कर्मोदयसे दुःख होता है. अर्थात् पूर्वकर्म उदयमें आकर वह स्थिर हो जाता है और उसीसमय नवीन कर्म भी बंध जाता है. अतएव दुःखका कारण जो पूर्व कर्म उसका नाश होते समय ही नवीन कर्म बंद जाता है. इसलिये वह भी कर्म उसके अनंतर उदयमें आता है इसलिये इस जीवको सतत दुःखही दुःख भोगना पडता है
बंधतो मुच्तो एवं कम्मं पुणो पुणो जीवो ॥
सुहकामो बहुदुक्ख संसारमणादियं ममइ || १७९७ ।।
गृहता सुचना दारुणं कल्मषं सौख्यकांक्षेण जीवन मूढात्मना ॥ भ्रम्य संस्कृती सर्वदा दुःखिना पावनं मुक्तिमार्गं ततोऽपश्यता || १८६९ ॥ इति जन्मानुप्रेक्षा ॥
विजयोदयावंत मुतो बंधन मंचन । एवं कम्मे पुणो पुणो जीषो कर्म पुनः पुनर्जीघः दत्तफलानि मुंचति, कर्मफलानुभव कालोपजात रागद्वेपपरिणामेर भिनवानि कर्माणि वनाति । सुकामी सुखाभिलाषवान् । बहुदुक्खं विचित्र दुःखं । संसारमणादिगं भमदि अनादिसंसारं भ्रमति । संसारचिंता ||
मूलारा - बंधतो पूर्व कर्मफलानुभवकाले जाताभ्यां रागद्वेषाभ्यां अभिनयं बनन् । मुञ्चंतो उपयुक्तफलं प्रानं सुचन् || संसारानुप्रेक्षा ॥
अर्थ -- जिन कर्मोसे आत्माको फल मिल चुका है ये कर्म गल जाते हैं. परंतु पूर्व कर्मके फलोंका अनुभव लेते समय यह जीव रागद्वेषयुक्त होता है अतः उसको नवीन कर्म बंध जाता है. इस जीवके मनमें सुखकी तीव्र अभिलाषा है परंतु वह सुख उसके उपायोंका ज्ञान न होनेसे प्राप्त नहीं होता है. उलटे उपायोंमें मवृत होनेसे इसको नानादुःखों से परिपूर्ण ऐसे अनादि घोर संसारमें भ्रमण करना पडता है.
लोकानुप्रेक्षा निरूप्यते नामस्थापनाद्रव्यादिविकल्पेन । यद्यप्यनेकप्रकारो लोकस्तथापीद लोकशब्देन जीवद्रव्य लोक पचोच्यते । कथं ? सूत्रेण जीवधमप्रवृत्तिक्रमनिरूपणात् ॥
आश्वा
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