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________________ मा मूलाराधना १११७ मज्झण्हतियखसूरं ब इच्छिरूवं ण पासदि चिरं जो ॥ खिप्पं पडिसंहरदि य मणं खु सो णिच्छरदि बंभं ॥ ११०५ ॥ न पश्यन्धंगनारूप ग्रीष्मार्कमिव यश्विरम ॥ क्षियं संहरते दृष्टिं तस्य नमवतं स्थिरम् ॥ ११५० ।। विजयोदया-मझण्हतिक्ससूर व मध्यान्हे स्थितं तीक्ष्णमादित्यमित्र स्त्रीणां कर्ष विरं यो न पश्यति । क्षिप्रमुपसंहरति दृष्टिं यःस निस्तरति ग्रहाचर्य । मूलारा--खिप्पं शीघ्र । पचिसंहरवि निवर्तयति ॥ अर्थ—मध्यान्हको प्राप्त हुए तीक्ष्ण सूर्यके समान जो स्त्रीका रूप देरतक नहीं देखता है अर्थात् स्त्रीके रूपसे अपनी दृष्टि को जल्दी हटाता है वही ब्रह्मचर्यका रक्षण कर सकता है. SHODHARA - एवं जो महिलाए सद्दे हवे तहेव संफासे ।। ण चिरं सज्जदि हु मणं णिच्छरदि स संततं बंभ ॥ ११०६ ॥ गंधे रूपे रसे स्पर्शे शब्दे स्त्रीणां न सज्जति ॥ जातु यस्य मनस्तस्य ब्रह्मचर्यमस्वाडितम् ॥ ११४१ ।। द्विपमिव हरिकांता मक्ष मीनं बकीव । भुजगमिव मयरी माषिक बा बिडाली ॥ गिलति निकटवृत्ति संयतं निईया स्त्री। निकटमिति नदीय सर्वदा वर्जनीयं ।। ११५२ ।। प्रथयति भवमार्ग मुक्तिमार्ग वृणक्ति । दवयति शुभवद्धिं पापद्धिं विधत्ते ।। जनयति जनजस्प शोकवृक्ष लुनीत । वितरति किमु कष्टं संगति गनानाम् ॥११४३ इनि स्त्रीसंसर्गदोषाः ।। यिजयोदया-पर्व जो महिला पर्व यो युवतिशदे, रुप, संस्पर्श व चिरं मनो न संधत्तेऽसौ ब्रह्म निस्तरति । ससम्गी॥ मूलारा-सन्जदि संधत्ते । बीसंसर्गदोयाः ।। amin
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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