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आघाला
मृताराधना
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सम्पग्दर्शन वह सगग सम्यग्दर्शन है. जिनके प्रशस्त और अप्रशस्त दोनो ही राग नष्ट हो गये हैं अर्थात् मोहनीय कर्म, ज्ञानावरण और दर्शनावरणा कर्म जिनका नष्ट हो गया है उनके सम्यग्दर्शनको वीतराग सम्यग्दर्शन कहते हैं, केवली भगवानको उत्कृष्ट सम्यग्दर्शनाराधना होती है, क्योंकि संपूर्ण रागरूपी मल उनका नष्ट हुआ है. तथा त्रिकालवी संपूर्ण पदार्थोंका यथार्थस्वरूप जाननेवाला ज्ञान सम्यग्दर्शनका साथी है. इसलिये भी केवली भगवानझी सम्यग्दर्शनाराधना सर्वोत्कृष्ट है, अविरतसम्यग्दृष्टयादिक सम्यग्दृष्टि जीवाकी सम्यग्दर्शनाराधना मध्यम दर्जेकी है. जो परीषहाँसे व्याकुलचित्त हो गये हैं ऐसे अविरत सम्यग्दृष्टी जीव जघन्याराधक है ऐसा समझना चाहिये.
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जधम्पसम्यक्रवाराधनामाहात्म्य कथयति--
संखेजमसंखेचगुणं या संसारातिर्ण : दुक्खक्खयं करते जे सम्मत्तेणणुमरंति ॥ ५२ ॥ संख्यातामप्यसंख्यातामनुसत्यापि संसृतिम् ॥
मन्युकालेऽनुगच्छन्ता जीवाः सिध्यन्ति दर्शनम् || ५६ ॥ विजयावया-संसजभसंखअगुण या संसारमाणि परिभाय नमवयं दुःखदार । बलि पन्ति ॐ. सम्भपाणुमति सभ्य पवन सह. मुनिमुपयाति । नन्धियं जयन्था सम्यक्त्याराधना तस्यां च प्रयुगस्य संसार कन्दों निरूपित पय । सखेज वा असंखेज या ससा जहाजार' इति नत्गुनरुक्तता स्यानिति । न, उक्तस्यार्थस्याविशेषण भूयोऽभिधानं पुनरक्तमिति, पह तु विशेाभिधानमस्ति ' दुनसक्वयं करतित्ति' ।
जपम्यसम्यक्त्वाराधनामाहा यमाह
मूलारा-गुणं वा । वा शब्दादनंत चेत्यर्थः । अनुत्तरितृणं । परिभ्रम्य । अणुसरिता मरणे प्रतिपद्य । काति इत्यादि । एतद्विशेषल्यापनार्थत्वादस्योवार्थत्वेऽपि न दोपः।
जघन्य सम्यक्त्वाराधनाकी विशेषता आचार्य दिखाते हैं
अर्थ-जिनका सम्यक्त्व के साथ मरण होता हैं वे जीव संख्यांत या असंख्यातभवतक संसारदुःखोंका क्षय करके मोक्षकी प्राप्ति कर लेते हैं.
పందం దం
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