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________________ मलाराधना आश्वास विमुंचते यः परवित्तमअसा निरक्ष्यिमाणं सदृशं मृदा सदा ॥ अनन्यसाधारणभूमिभूषितः स यानि निर्वाणमपास्तकल्मषः ॥ ८८८ ।। इति अस्तेयम् ।। विजयोव्या-देविदा जादा देतेंद्राणायां गृहातीन, राष्ट्रकूटानां, देवतानो, सधर्मणा व परिप्रई। उपमहविहिणा अधप्रविधिना । दिण्णं दत्तं । गिण्हमु गृहाण । सामण्णसाइणय धामण्यसाधर्म ज्ञानसंयमस्य पा साधनं । अदर्स ॥ ___आचार्यने अदचादानके-चोरीके दोष दिखाये अब योग्य दी हुई वस्तूका तू ग्रहण कर ऐसा आपकको उपदेश करते हैं. अर्थ-उपर्युक्त दोष चोरीका जिसने त्याग किया हैं ऐसे महापुरुष में नहीं रहते हैं. परंतु उस महापुरुपमें उपर्युक्त दोपोंके विरुद्ध गुण उत्पन्न होते हैं. दिया हुआ पदार्थका उपभोग लेनवाल उस महा पुरुप में अच्छे अच्छे गुण प्रकट होते है. देवेंद्र, राजा, गृहस्थ, राजाधिकारी, देवता और साधर्मिक साधु इन्होंने योग्य विधीसे दिया हुआ, मुनिपनाकी सिद्धि करनेवाला, जिससे ज्ञानकी सिद्धि होगी और संयमकी वृद्धि होगी एसा पदार्थ हे क्षषक तूं ग्रहण कर. आचार्य महावतका वर्णन पूर्ण हुआ. की सिद्धि होगा आप संयम का पादतोंने योग्य विधीस दिया हुआ चतुर्थं व्रतं निरूपयनि रक्वाहि बंभचेरं अध्यभे सविधं तु धज्जिता ॥ पिनचं पिअप्पमत्तो पंचविधे इतिथवरग्गे ॥ ८७७ ॥ अब्रह्म दशधा त्यक्त्वा रामावैराग्यपंचके ।। निवेश्य मानसं पाहि ब्रह्मचर्यमनारतम् ।। ८८९ ॥ विजयोदया-रक्वाहि यभंवरे पालय ब्रह्मचर्य । अब्रह्म दशप्रकारमपि वर्जयिन्या नियमाप्रमत्तः पंवविध स्त्रीवैराग्ये ॥
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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