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मूलाराधना
आवास:
इस देहमें वायुका प्रकोप होनेसे कोइ रोग उत्पन्न होते हैं कोइ पित्त और कफके प्रकोपसे उत्पन होते हैं. रोगोंके उत्पत्तिका अभ्यंतर कारण पाप है और बहिरंग कारण वातादिकोंका प्रकोप होना यह है, इन रोगांसे यह देह पीडित होता है. दुःखौको कारणभूत यह देह नाशवंत है ऐसा समझकर हे आत्मन् अर्थात् हे क्षषकतूं अनेक प्रकारचे धर्मसाधन कर. यह देह रक्त और वीर्यके संयोगसे उत्पन्न होता है. शिथिल हडिओंसेहहिरूप खंबोंसे इस देहकी रचना हुई है. स्नायुओंसे यह सर्व तरफसे जकड़ा हुआ है. शिराओंसे वेष्टित है. मांस, रक्तरूपी पानी और कीचडस यह लिपा गया है. इस देहमें रोगोंने निवास किया है. ऐसे शरीरको कोन स्पर्श करेगा. इस तरह शररिनियंजनी कथा कह कर आचार्य क्षपकको चारित्र में स्थिर करते हैं.
गदित्थपादमूले हाँति गुणा एवमादिया बहुगा ॥
ण य होइ संकिलेसो ण चात्रि उप्पग्जदि विवत्ती ॥ ४४७ ॥ विजयोदया--गीदत्थपादमूले गृहीतार्थस्य षड्भुतस्य पादमूले । होति बहुगा गुणा गीदाथो पुण अवगस्स छन्त्येषमातिसूत्रांचकमिर्दिनः । यहोर संकिलेसो नैय भयति संक्लेशा ण वा पि जप्पर विपत्ती म घोपचते विपत्नत्रयस्य । तस्मादाधारवाजाचार्यः उपाधयणीयः इत्युपसंहारराति आधारवं॥
यूलाग --विवत्ती रत्नत्रयविनाशः। आधारवान् ।।
अर्थ-जो आचार्य सूत्रार्थ है उसके चरणके समीप जो क्षपक समाध्यर्थ रहेगा उसको उपयुक्त गुणोंकी प्राप्ति होती हैं. उसको संक्लश परिणाम नहीं होंगे और रत्नत्रयमें कुछ बाधा भी उपस्थित नहीं होगी. इस लिये आधारगुणयुक्त आचार्यका आश्रय लेनाही क्षपकके लिये योग्य है. इस प्रकार आधारयत्न गुणका वर्णन हुआ. व्यवहारवत्वनिरूपणायोत्सरगाथा
पंचविहं ववहारं जो जाणइ तञ्चदो सवित्थारं ॥ बहुसो य दिकयपतृवणो ववहारवं होइ ॥ १३८ । जानाति व्यवहारं यः पंचभेदं सविस्तरम् ।। दत्तालोकितशुद्धिश्च व्यवहारी सभण्यते ।। ४६० ॥