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पृलाराधना
आश्वासः
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विजयोदया-पंचविहं घबद्दारं पंचप्रकार प्रायश्चित्तं। जो जागदि नचदो सयित्वारं यो जानाति तत्वतः सविस्तरं । यसो य दिकदपठयणो बदुराइव परुत प्रस्थापनः । आचार्याणां प्रायश्चित्तदाने दृष्एं, स्वयं चान्वेप दत्तप्रायश्चित्तः । चबहारवं होदि व्यवहारयान् भवति । पूर्वाईन प्रायश्चितज्ञांतता दशिता, फर्मदर्शन कर्माभ्यासश्य प्रख्यापितः । अशास्त्रको यत्किंचिदायान्यात्मनोऽभिलषितं । न तेन, शुग यति, शास्त्रज्ञोऽव्यदएकमां, सुविषादमेति । ततो ज्ञान कर्मदर्शनं, कमाभ्यास इति त्रयो गुणाः यस्य स व्यवहारवानिरयुज्यते ॥
म्यवहारवत्त्वं गाथासप्तकेन वक्तुकाम: प्रथम प्रायश्चित्तज्ञानकर्मदर्शनकर्माभ्यासलक्षणगुणत्रयवन्तं व्यवहारवन्तं निर्दिशति--
मूलारा-बहारं प्रायश्चितं । विठ्ठकवपट्ठवणो दृष्टमाचार्यैः क्रियमाणमवधारितं । कृवमात्मना, स्वस्य परस्य वा प्रयुक्त प्रस्थापन प्रायश्चित्तदानं येन स दृष्टकृतप्रस्थापनः । अशास्त्रज्ञ हि यस्किचन प्रायश्चित्तं ददाति न च तेन पर: शुद्धयति । शालज्ञोऽन्यदृष्टकर्मा कर्मतु विधादमेति ।।
अर्थ-पांच प्रकारके प्रायश्चित्तोंको जो उनके स्वरूपसहित सविस्तर जानते हैं. जिन्होंने प्रायश्चित्त देते. हुए अन्य आचार्योंको देखा है और स्वयं भी जिन्होने दिया है ऐसे आचार्यको व्यवहारवान् आचार्य कहते हैं, इस गाथाके पूर्वार्द्ध में आचार्यको प्रायश्चित्तवता कही है. और उत्तरार्धमें प्रायश्चित्त देते हुए देखना, प्रायश्चित्त देनेका अभ्यास करना इन गुणों का उल्लेख किया है. प्रायश्चित्तशास्त्रका ज्ञान यदि न हो तो जो मनमें आया सो प्रायश्चित्त देगा अतः आचार्य प्रायश्चित्तज्ञ ही होना चाहिए. चाहे जो प्रायश्चित्त देनेसे अपराधकी शुद्धि नहीं होती है. प्रायश्चित्तशास्त्रका जानकार होते हुए भी यदि प्रायश्चित्त देते हुए किसीको नहीं देखनेसे प्रायश्चित्त देते समय घबराहट पैदा होती है. इसलिए. प्रायश्चित्तका ज्ञान, प्रायश्चित्तदानदर्शन और प्रायश्चित्त देने का अभ्यास ये तीन गुण जिसमें है ऐसे आचार्य को व्यवहारवान आचार्य कहते हैं.
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का पंचविधी व्यवहारः, को चा विस्तर प्रमाशंकायां तदुभयं निरूपयति-.
आगमसुद आणाधारणा य जीदेहि हुति ववहारा॥ एदोस सविस्थारा परूवणा मुत्तणिदिठा ।। ४४९ ॥