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मूलाराधना
आश्वास:
होती है, ज्ञानविनयपरिणति और दर्शनविनयपरिणति कर्ममलका नाश होनेसे प्राप्त होती है. अतः ज्ञानविनयपरिणति
और दर्शनविनयपरिणतिको ही आत्माकी शुद्धि कहते हैं. कीचडका नाश होनेसे जलादिकांकी जैसी शुद्धि-निर्मलना होती है पैसी कर्ममलका नाश होनेसे आत्मामें ज्ञानविनयादि शुद्धि उत्पन्न होती है. विनयसे वैमनस्य नष्ट होता है. जो विनय नहीं करता है उसके ऊपर गुरुका अनुग्रह नहीं होता है जिससे उसमें वैमनस्य उत्पन्न होता है. विनयसे
जुगुण-सरलता अगट होती है. अथवा जो बिनय करता है वह शास्त्रनिर्दिष्ट आचरण करता है यह सिद्ध होता है. विनय करनेसे अभिमानका नाश होता है. अर्थात् मार्दवगुण प्रगट होता है. दुसरोंके उत्कृष्ट गुणा में श्रद्धा उत्पन्न होनसे, और गुणोंका महत्व प्रगट करनेसे तथा विनयसे अभिमानका नाश होता है. विनयसे लाघवगुण प्राप्त होना है. विनीतमान आचार्यादिकोपर अपना भार सोपता है, अर्थात जो कुछ कार्य करता है वह आचार्यकी कृपामही में यह कार्य कर सका हूं ऐसा समझता है. अतः विनय लाघवगुणका मूल है. विनयरी मनुष्यक ऊपर सर्व ही भक्ति करते हैं. विनयसे दुसरे पुरुषों को उत्कृष्ट आनंद की प्राप्ति होती है और खुद को भी आनंद होता है, जो विनय नहीं करता है. लोक उसकी निर्भर्त्सना करते है अतः अचिनयी मनुष्य हमेशा दुःखी रहता है. विनयी की कोईभी निंदा-निर्भर्त्सना नहीं करता है अतः वह सुखी है उनको कोई बाधा नहीं देता है. बाधाके अभावमें ही सुखकी लोक कल्पना करते हैं,
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कित्ती मेत्ती माणस्स भजणं गुरुजणे य बहुमाणो । तित्थयराणं आणा गुणाणुमोदो य विणयगुणा ॥ १३१ ॥
भक्तिः प्रल्हादन कीर्तिलाघवं गुरुगौरवं ॥ जिनेंद्राज्ञा गुणश्रन्दा गुणा वैनयिका मताः॥ १३२ ।। विनयं न विना ज्ञान दर्शन चरितं तपः॥ कारणेन विना कार्य ज्ञायते कुत्र कथ्यताम् ।। १३३ ।।
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