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________________ आचासा मूलारा--पष्ठिभोरस्मि पुण्ये । राहो, सोममहणं । एतां श्रीविजयो नेच्छति ।। मलाराधनाक .. अ हाहासाममहण । एता धावि "भाग्यशालिनों दोपमपि दोष इत्यगृहीत्वा लोको माननां करोति इति पुण्यवतो मायया न किंचित्साभ्य तयाप्यसौ प्रयुज्यमाना मान्यतामेव विनाशयेत् इति शिक्षयनि मूलारा-स्पष्टम् ॥ अर्थ-उत्कृष्ट भाग्य यदि न होगा तो हजारो कपट करके दोषोंको छिपाने पर भी वे प्रगट होते ही हैं. जैसे चंद्रको राहग्रास लेता है यह रात छिपती नहीं सर्व जनप्रसिद्ध होती है, जैसे दोष छिपानेका कितना भी प्रयत्न करो परंतु यदि तुम पुण्यवान न होंगे तो तुझारे दोष लोगोंको मालूम होंगे ही. अर्थ-जो भाग्यवान मनुष्य हे उसका दोष सई जनौको प्रत्यक्ष होनेपर भी लोक उसको दोष मानते नहीं है. जिस तालाबका पानी मलिन होनेपर भी उसके मलिनपनाके तर्फ जप लक्ष्य नहीं देते हैं. इससे यहाँ यह अभिप्राय समझना चाहिए- पुण्यवान् केपट करनेकी कुछ भी आवश्यकता नहीं है. क्योंकि दोप प्रगट होनेपर भी श्रीमान मान्य होते ही है. मान्यताका नाश होगा इस भयसे दोषोंको छिपाते हैं परंतु जब मान्यताका नाश होनेका मय ही नहीं है तो कपट करने की क्या आवश्यकता है. अप माणं करोत्यार्थ तथापि साथिकेहि पति डंभसएहिं बहुगेहिं सुपउत्तेहिं अपडिभोगस्स ॥ हत्थं ण एदि अत्थो अण्णादो सपडिभोगादो ॥ १४३०॥ दमेऽर्थः क्रियमाणऽपि विपुण्यस्य न जायते॥ आयाति स्वयमेवासी सुकृते विहित सति ॥ १४९१ ॥ विजयोत्या-उभसदेहि ययुगाई दंभशत बहुभिः सुप्रयुक्तैरपि अपुण्यस्य हस्तं नायात्यर्थः । अन्यस्मात्पुण्यात् ।। विपुण्यस्य मायाप्रयोगो धनमाधनापापि न स्यादिति बोधयनि-- मूलारा--अपडिभोगरस अपुण्यस्य । अण्णायो अन्यस्माद्वंचनाविषयीयवात् । सपडिभोगादो सपुण्यात् ।। धनके लिये माया करते हैं यह कहना भी व्यर्थ है ऐसा कहते हैं १३५८
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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