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मलारापना
भश्विास.
अचेलकत्वमुद्रिष्टशय्यशाहरखने ।। राजपैडविपार्जित्वं कृतिकर्मप्रवर्तनम् ॥ अवरोहणाईस्वं म्येष्ठत्वं च प्रतिफमः॥
मामैकत्रस्थितिः पर्यास्थितिकल्पा वशेरिताः ।। दशकल्पोंका निर्देश--वर्णन करनेवाली गाथा
अर्थ-आचेलक्य-चेल ब्दका अर्थ यस ऐसा होता है. परंतु यहा चेल शब्द संपूर्ण परिग्रहोंका उपलक्षण रूप है. अर्थात आचलक्यका अर्थ संपूर्ण परिग्रहोंका त्याग एसा होता है. उत्तमक्षमादि दशधमों में से त्याग नामका एक धर्म है. त्यागका अर्थ सर्वपरिग्रहास विरक्त होना एमा होता है. अचेलना, याचलक्य इन शब्दोंका भी वही अर्थ होता है. इस लिपे चम्बरहित याने सर्वपरिग्रहका न्यागी निंग त्याग नामक धर्म में प्रवृत्त होता है. परिग्रहरहित यति त्यागधर्मक समान अकिंचन धर्म में भी प्रवृत्त होता है. लोक परिग्रहके लिये ही उद्योग, खेती, नौकरी वगैरह आरंभमें प्रसि करने हैं. परंतु मुनिन सर्व परिग्रहोंका त्याग किया है इस लिये उसको आरंभका अभाव हो चुका. आरंभका अभाव होनसे असंयम भी नष्ट होता है. और सत्य धर्ममें स्थिरता आती है. परिग्रहक लियेहि मनुष्य दूसरेसे असत्य भाषण पोलता है. खेत, गह, धनादि याद्यपरिग्रह और क्रोधमानादि अभ्यंतर परिग्रह जब नर होते है नब असत्य भाषण करनेका कारण ही नष्ट होता है, जब कमी निष्परिग्रही पुनि बोलेगा तो सत्यही चोलेगा. आचलक्यस लाघवगुण प्राप्त होता है. अचार्य महायतको पूर्णावस्था प्राप्त होती है. जब परिग्रहकी मन में अभिलाषा उत्पन्न होती है तब दूसरोंका न दिया हुआ धन मनुष्य ग्रहण करता है.
परिग्रहांका त्याग जिसन किया है वह ऐसे अकार्य में प्रवृत्त होता ही नहीं, रागादिकोंका त्याग होनेसे परिणामोंमें निर्मलता आती है जिससे ब्रह्मचर्यफा निदोष रक्षण होता है. प्रार्य निर्मलतम होता है. फ्रोध उत्पन्न होनेके लिये परिग्रह ही कारण है, परिग्रहोंका त्याग करनेसे क्रोध नष्ट होता है और श्वमागुण प्रगट होता है. मैं सुंदर हूं, मैं धनाढ्य हूं इत्यादि रूपका अभिमान भी परिग्रहोंका त्याग होनेपर मनमें नहीं रहता है. मार्दव गुण भी आंचलक्यसे प्राप्त होता है. निष्कपटता भी प्राप्त होती है. कारण आचेलक्यको धारण करनेवाला मुनि मनमें जो विचार उत्पन्न हुआ होगा वह मुखसे कहता है. अतः उसको आर्जव गुणको लब्धि होती है, परिग्रहही माया
॥ अमावस्तु मुनिना अत्त होता
TARANASIBaba
SMARATBrampai
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