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________________ मूलाराधना भरवास ६२० कपटीपनाका मूल है, ऐसे परिग्रहका त्याग करनेसे वैराग्यभाव पड़ जाते हैं. तप सुनिराज शन्दादि पंचेंद्रियों के विषयों में आसक्त नहीं होते हैं. परिग्रहमे रहित होनेपर मुनि शीत, उष्ण, दंशमशकादि परिश्रम सहन करते हैं. देव दानवोने उपसर्ग यदि क्रिये तो भी सहन करते हैं. ऐसा दुःख सहन करनेका सामर्थ्य परिग्रहोंका त्याग करनेसे ही आत्मामें प्रगट होता है, परिग्रहोंके त्यागसे घोर तपका पालन भी होता है. एक अचेलत्वसे दश धोका पालन होता है ऐसा सिद्ध होना है. यह सेवेपसे विवेचन किया, अचेलताकी प्रशंसा अब दुगर प्रकार आचार्य करते हैं आचलक्यसे संयमशुद्धि होती है. यह पहिला गुण है, स्वेदजल और मलसे मलिन हुए वखम स्वंदसे लिक्षा, जू वगैरह सम्मान जन्तु उत्पन्न होते हैं. तथा वस्त्र के आश्रयसे दूसरे सूक्ष्म और स्थूल बस और | स्थावर जीव उत्पन्न होते हैं. वस्त्रग्रहण करनेसे ये प्राणी पीडे जाते हैं, जीवव्याप्त बस वैसा ही रखने पर भी हिंसा होती है. उसमेंस एक एक जीच अलग करना चाहे तो वे मरते हैं. वस्त्रधारी मनुष्यको खके होना, बैठना सोना, फाडना, हैद करना, बांधना, बेष्टन करना, धोना, मर्दन करना, धूपमें सुखाना इत्यादि कार्य करते समय चस्त्रगत जीवोंको बाधा पोहोचानसे महान असंयमकी माप्ति होती है, परंतु वस्त्रत्यागी मुनिको उपर्युक्त असंयमका स्पर्श भी होता नहीं है, उनका संयम निर्मल रहता है, वस्त्रत्याग करनेसे इंद्रियविजय नामक गुण प्राप्त होता है. साँसे व्याप्त वनमें विद्यामंत्रादिरहित मनुष्यको सावधानीसे रहना पड़ता है. इसी प्रकार इंद्रियोंका नियमन करनके कार्य में वस्त्ररहित मुनिओंको बहुत सावधानी रखनी पड़ती है. चे इंद्रियनियमन करने में सदा दक्ष रहते हैं. यदि वे असावध रहेंगे तो लज्जास्पद शरीरविकारकी उत्पत्ति होगी. निर्वस्त्रतासे कार्योंका अभाव होता है. जिसके पास वस्त्र है वह मनुष्य चोरके मयसे गोमयादिकके रससे वस्त्रको लिसकर उसको छिपाता है अर्थात् कपटप्रयोग करता है, अथवा रस्ता छोडकर उन्मार्गस चोरको फसानेके लिये जाता है. चोरको आता हुआ देखकर छोटे झुडुप, लताजाल इत्यादिकों में छिप कर रहता है. मेरे पास वखादिक हैं दूसरोंके पास वे नहीं है ऐसा मनमें विचारकर अभिमानी होता है. जबरदस्तीसे चोर हरण करनेक लिये उतारू होनेपर उसके साथ कलह करता है. वस्त्रका लाभ होनसे लोभकपाय उत्पन्न होता है. वन ग्रहण करनेसे ऐसे दोप उत्पन्न होते हैं. वस्त्र के त्यागमें इन दोपोंका सर्वथा अभाव है. वखत्यागी मुनिको ध्यान और म्याध्यायमें विप्नभय रहना नही. कारण HereTATTENTagsSARTARATHIBGABSTER
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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