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________________ मूलाराचना १३८० संसारबिसमदुग्गे तो पणटुस्स देसओ होदि ॥ होइ तवो पच्छयणं भवतारम्मि दिग्घम्मि || १४७० ॥ तपः संसारकांतारे नष्टानां देशकं यतः ॥ दीर्घे भवपथे जन्तोस्तपः संचलकायते ॥ १५३० ।। विजयोदया – संसारविसमदुगे संसारो विषमदुर्ग च दुरुप्त रणीयत्वात् । तस्मिम्प्रणष्टस्य दिङ्मूढस्य । तषो सगो होर तप उपदेष्टा भवति । संसारविषम दुर्गमुत्तारयतीति । होदि तो पच्छरणं भवति तपः पथ्यदनं भवकांतारम्भि भवाद विश्वम्मि दीर्घे ॥ मूलारा - विसमदुग्गे दुरुत्तरारण्ये | पणदृस्स दिक्मूहस्य | देसओ मार्गवेशकः । पच्छदणं पयदनं शेवलं । कतारे दुर्गममार्गे ॥ अर्थ -- जैसे महारण्य में प्रवेश किया हुआ मनुष्य दिपूढ होता है, उससे निकलना कठिन होता है, वैसा यह संसारभी महावन के सत्तर है. यह तप उसको उपदेशक है अर्थात् संसारवनसे वह तप प्राणीको निकालता है. यह तप इस दीर्घसंसारवनमें मार्ग में भक्षण करने योग्य कलेवाके समान है, रक्खा भए सुतवो अभुदयाणं च आगरो सुतवो ॥ सिजी होइ तो अक्खयसोक्खस्स मोक्खस्स ॥ १४७ ॥ श्रेयसामाकरो ज्ञेयं भयेभ्यो रक्षकं तपः ॥ सोपानमारुरुक्षूणामयाधं सिद्धिमंदिरम् ।। १५३१ ।। विजयोदया - रक्खा भवसु सुतोभयेषु रक्षा तपः। अभ्युदयानां वाकः सुतपः । मोक्षस्य अक्षयसुखस्य निश्रयणी भवति तपः ॥ मुलारा स्पष्टम् ॥ अर्थ - यह तप भयमें जीवका रक्षण करता है. यह सुतप अभ्युदय का आकर है अर्थात् स्वर्गादिसुखोंका उत्पत्तिस्थान है और अक्षय सुख जिसमें है ऐसे मोक्षके लिये यह तप नसेनीके समान है. आश्वास ६ ૧૮
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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